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आत्ममीमांसा
भारतीय चिंतन के इतिहास में पुरुषसूक्त तथा नासदीयसूक्त जैसे वेद संहिताओं के वे अंश दार्शनिक माने गए जिनमें चेतना पर विचार हुआ । यूनान में भी यद्यपि सुकरात से पूर्व थेलीज, एनेक्जीमेण्डर आदि विचारक हो गए थे, जिन्होंने सृष्टि के स्वरूप पर विचार किया तथापि यूनान के दार्शनिक इतिहास का सुकरात से प्रारम्भ इसलिए माना जाता है कि उन्होंने सर्वप्रथम यह कहकर कि 'अपने को जानो' । दर्शन की धारा भौतिक पदार्थों से आत्मा की ओर मोड़ दी। इस प्रकार पूर्व और पश्चिम दोनों ही परम्पराओं में दर्शन के क्षेत्र में चेतन तत्त्व का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। आत्मा का स्वरूप
जैन दर्शन प्रारम्भ से ही आत्मवादी दर्शन रहा है। जैन आगम साहित्य में प्रचुर मात्रा में आत्म-विमर्श उपलब्ध है । परम्परा एवं आधुनिक विद्वानों के द्वारा भी प्राचीनतम जैन आगम के रूप में स्वीकृत आचारांग का प्रारम्भ आत्मजिज्ञासा से होता है । सम्पूर्ण जैन आचार-मीमांसा आत्मवाद की अवधारणा पर अवलम्बित है। आचारांग में आत्मस्वरूप की विशद मीमांसा हुई है। आचारांग में आत्मा एवं विज्ञाता का तादात्म्य भाव माना गया है--
जे आया से विण्णाया।
जे विण्णाया से आया॥' आत्मा एवं विज्ञाता एक ही है। सांख्य दर्शन के अनुसार ज्ञान पुरुष (आत्मा) का स्वरूप नहीं है किंतु वह प्रकृति का धर्म है। प्रकृति जड़ है। अपने सत्त्वगुण के वैशिष्ट्य से वह 'ज्ञान' को भी उत्पन्न करती है। सांख्य के अनुसार ज्ञान सत्त्व गुणात्मक है। अत:
1. Durant Will, The story of Philosophy, (New York, 1954) P.6, There is no real philosophy
until the mind turns round and examines itself. 'Gnothi seavton', said Socrates : Know theyself.
आयारो, 1/। 3. वही, 5/104 4. सांख्यकारिका, 13
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