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________________ 142 जैन आगम में दर्शन प्रकृति का धर्म या कार्य है, पुरुष का स्वरूप नहीं है। पुरुष का स्वरूप चैतन्य है। ज्ञान नहीं है । वह चैतन्य एवं ज्ञान को भिन्न-भिन्न मानता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का उपाधिगत धर्म है। वह समवाय सम्बन्ध से आत्मा से जुड़ता है। मुक्तावस्था में आत्मा ज्ञानशून्य हो जाती है। जबकि जैन के अनुसार चैतन्य एवं ज्ञान एक ही है। आत्मा चैतन्य लक्षण, चैतन्य स्वरूप या चैतन्य गुणवाला पदार्थ है। आत्मा के प्रकार जैन दर्शन के अनुसार आत्मा के दो प्रकार हैं- सिद्ध और संसारी।' संसारी आत्मा कर्मयुक्त है अत: वह औपपातिक अर्थात् पुनर्जन्म करने वाली होती है। औपपातिक आत्मा नानाविध शरीरों को धारण करती है और वह नानाविध योनियों में अनुसंचरण करती है, बार-बार जन्मती है और मरती है। इसे संसारी आत्मा कहा जाता है। द्रव्यार्थिक नय के मत में यह कर्मोपाधिसापेक्ष आत्मा शरीर में अधिष्ठित होने के कारण तर्कगम्य, बुद्धिग्राह्य, पौद्गलिक गुणों से युक्त, पुनर्जन्मधर्मा, स्त्री-पुरुष आदि लिंग से सहित तथा कथंचिद् मूर्त भी है। जैन चिंतकों ने निश्चय एवं व्यवहार नय के माध्यम से वस्तु स्वरूप का विमर्श करके वस्तु-व्यवस्था को एक नया आयाम प्रदान किया है। आत्म-स्वरूप विश्लेषण में भी इसी दृष्टि का उपयोग आगम-साहित्य में हुआ है। व्यवहारनय के द्वारा आत्मा के संसारी स्वरूप का वर्णन किया जा सकता है। किंतु आत्मा का शुद्ध स्वरूप व्यवहार नय का विषय नहीं बन सकता। निश्चय नय के ज्ञेय क्षेत्र में ही आत्मा का शुद्ध स्वरूप समायोजित हो सकता है। शुद्धात्मा शुद्ध आत्मा कर्ममुक्त होती है। शरीरमुक्त होने के कारण वह आत्मा अमूर्त होती है। इसलिए वह न शब्दगम्य है और न तर्कगम्य है। बुद्धि भी उसका ग्रहण नहीं कर सकती। शब्द, तर्क एवं बुद्धि का ज्ञेय एवं अभिव्यक्ति का क्षेत्र सीमित है। शब्द, तर्क और चिन्तन, जो वस्तु-विश्लेषण के साधन हमारे पास में है उनके द्वारा शुद्ध आत्म-तत्त्व की व्याख्या नहीं हो सकती। आचारांग का प्रवक्ता इस वस्तु सत्य से अवगत है। इसी वस्तु सत्य को अभिव्यक्त करते हुए कहा गया 1. सव्वे सरा णियस॒ति 2. तक्का जत्थ ण विज्जइ 3. मई तत्थ ण गाहिया।' 1. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, श्लोक 8, चैतन्यमौपाधिकमात्मनोऽन्यत्, न संविदानन्दमयी च मुक्तिः। . 2. उत्तरज्झयणाणि, 28/10,11 3. ठाणं, 2/409, सिद्धा चेव, असिद्धा चेव । 4. आचारांग भाष्यम्, 5/123-140 5. आयारो, 5/12 3 - 125 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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