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आत्ममीमांसा
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__ "सब स्वर लौट आते हैं-शब्द के द्वारा आत्मा प्रतिपाद्य नहीं है। वहां कोई तर्क नहीं है-आत्मा तर्कगम्य नहीं है तथा वह मति के द्वारा भी ग्राह्य नहीं है।' भाषा का प्रयोग क्षेत्र
__ भाषा का प्रयोग क्षेत्र पौद्गलिक जगत् है, जिसको वह विधिरूप में प्रकट कर सकती है किंतु आत्मा का शुद्ध स्वरूप विधिपरक भाषा से अभिव्यंजित नहीं हो पा रहा है, अत: उसका प्रकटन आचारांग, उपनिषद् आदि ग्रन्थ निषेधपरक भाषा में कर रहे हैं।
__ आगमयुग में आत्मा के स्वरूप को अभिव्यक्त करने के लिए जो शैली अपनाई गई है वह शैली प्राचीन उपनिषदों की शैली के निकट है। आत्मा शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्शात्मक नहीं है।' आत्मा का स्वयं का कोई आकार नहीं है अत: शुद्ध आत्मा के स्वरूप का वर्णन करते समय इन सबका निषेध किया जाता है और इसका वर्णन करने वाली भाषा नकारत्मक हो जाती है।
आत्मा का शुद्ध स्वरूप ही सांख्य दर्शन में प्रतिपादित है अत: जैन आगम जब आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन करते हैं तो उसका निष्कर्ष वही होता है जो सांख्य का होता है अन्तर इतना है कि सांख्य दर्शन आत्मा को सदा शुद्ध एवं अपरिणामी ही मानता है जबकि जैन दर्शन आत्मा की अशुद्ध अवस्था को भी मानता है तथा उसे परिणामी मानता है।
'कसले पुण णो बद्धे णो मुक्के'। इस प्रकार के वक्तव्य आगम साहित्य में उपलब्ध हैं किंतु परवर्ती दार्शनिक साहित्य में इस अभिव्यक्ति के स्वर क्षीण हो गए हैं । जैन दार्शनिक ग्रन्थों में भी आत्म-तत्त्व व्याख्यात हुआ है किन्तु उसकी अभिव्यक्ति का प्रकार बदल गया है । आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन वहां पर उपलब्ध नहीं है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन आगमयुग अथवा आगमयुग के अत्यन्त सन्निकट समयसार आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है। आगम में निश्चय नय की दृष्टि से प्रतिपादित आत्म-विचार सांख्य दर्शन सम्मत आत्म-विचार के निकट पहुंच जाता है तथा निषेधात्मक भाषा में अभिव्यक्त आत्मविचार उपनिषद् में वर्णित आत्म विचार के पास पहुंच जाता है। आचारांग जैसे शब्द, तर्क आदि के द्वारा आत्मा को अग्राह्य मान रहा है वैसे ही उपनिषद् भी आत्मा को इन्द्रिय, वाणी, बुद्धि एवं मन के द्वारा अग्राह्य मानते रहे हैं -
1. न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो न विद्मो न विजानीमो।' 2. नैषा तर्केण मतिरापनेया।
1. आयारो, 5/140, सेण सद्दे, ण रूवे. ण गंधे, ण रसेण फासे इच्चेताव। 2. वही, 2/182 3. केनोपनिषद्, (गोरखपुर, सं. 2026) 1/3 4. कठोपनिषद्, (गोरखपुर, सं. 2014)1/2/9
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