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________________ 144 आत्म विचार : आचारांग एवं उपनिषद् उपनिषदों में आत्मा के प्रतिपादक जो सूत्र हैं, उनका आचारांग प्रतिपादित सूत्रों के साथ साम्य है । आचारांग एवं उपनिषद् दोनों में ही आत्मा के शुद्ध स्वरूप को अनिर्वचनीय माना है। आत्मा अमूर्त और सूक्ष्मतम है, इसलिए वह शब्द के द्वारा प्रतिपाद्य नहीं है। सारे शब्द लौट आते हैं आत्मा तक पहुंच ही नहीं पाते हैं।' आचारांग चूर्णि में शब्द के स्थान पर प्रवाद शब्द प्रयुक्त हुआ है।' उसका तात्पर्य भी यही है कि आत्मा वाद-विवाद का विषय नहीं है। उपनिषद् में ब्रह्म के आनन्द - विज्ञान के विषय में भी ऐसा ही वक्तव्य उपलब्ध है - "वाणी वहां तक पहुंचे बिना ही मन के साथ लौट आती है। जो ब्रह्म के आनन्द को जानता है, उसको कहीं कभी भय नहीं होता । " " आचारांग में आत्मा के दीर्घत्व, (लोक व्यापित्व) ह्रस्वत्व (अंगुष्ठ प्रमाण) आदि का निषेध किया गया है।' आत्मा न छोटी होती है न बड़ी होती है। उपनिषदों में आत्मा को छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा बताया गया है । ' आत्म व्याख्या में नेतिवाद इन्द्रियों का विषयभूत जगत् तीन आयामों वाला है । वे तीन आयाम हैं - ऊंचा, नीचा और तिरछा । हम इन्हें इन्द्रियों से जानते हैं। आत्मा सभी आयामों से अतीत है । इसलिए पौद्गलिक द्रव्य से भिन्नता प्रतिपादित करने के लिए 'नेति' पद का प्रयोग किया गया है । जिसमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श एवं संस्थान होते हैं वह पदार्थ मूर्त्त है । आत्मा में वर्ण आदि नहीं होते हैं।' इसलिए यह अमूर्त है। अमूर्त पदार्थ इन्द्रियों का विषय नहीं बन सकता । नो इंदियग्गेज्झ अमुत्तभावा ।' आत्मा अमूर्त है अत: वह इन्द्रियग्राह्य नहीं है । जैन आगम में दर्शन आत्मा अशरीरी है। वह जन्मधर्मा नहीं है। वह लेपमुक्त है । ' जो आत्मा अपने मूल स्वरूप में स्थित है वह अशरीरी और अकर्मा होती है, इसलिए वह लिंगातीत होती है । वह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ।' श्वेताश्वतर उपनिषद् में आत्मा की लिंगमुक्त अवस्था तथा लिंगयुक्त अवस्था- दोनों का प्रतिपादन है। वहां कहा है 1. आयारो, 5 / 123, सव्वे सरा नियट्टेति । 2. आचारांगचूर्णि, पृ. 199, सव्वे पवाया तत्थ णियद्वंति । 3. तैतरीय उपनिषद्, (गोरखपुर, सं. 2014) 2/4, 6. आयारो, 5 / 128-131 7. उत्तरज्झयणाणि, 14 / 19 8. आयारो, 5 / 132-134, न काऊ, ण रुहे, ण संगे । 9. वही, 5 / 135, ण इत्थी, ण पुरिसे, ण अण्णा । Jain Education International 4. आयारो, 5 / 127, से ण दीहे, ण हस्से, ण वट्टे, ण तंसे, ण चउरंसे, पण परिमंडले । 5. छान्दोग्य उपनिषद् (गोरखपुर, सं. 2023) 3 / 14 / 3 एष मे आत्माऽन्तर्हृदये अणीयान् व्रीहेर्वा यवाद् वा सर्षपाद् वा श्यामाकाद् वा श्यामाकतण्डुलाद् वा, एष मे आत्माऽन्तर्हृदये ज्यायान् पृथिव्या ज्यायान् अन्तरिक्षाद् ज्यायान् दिवो ज्यायानेभ्यो लोकेभ्यः । - यतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह । आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कदाचन ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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