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________________ आत्ममीमांसा 145 "आत्मा न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक। जिस लिंग वाले शरीर को वह प्राप्त होती है, उसी लिंग से वह पहचानी जाती है।' इसका तात्पर्य यही है कि शुद्ध आत्मा लिंगातीत है तथा बद्ध आत्मा शरीरयुक्त होने के कारण अमुक-अमुक लिंग विशेष से पहचानी जाती है। आत्मा अपद है अर्थात् पदातीत है। उसका बोध कराने वाला कोई पद नहीं है।' पद शब्दात्मक होता है । आत्मा उसका वाच्य नहीं बन सकती । आत्मा के लिए कोई उपमा नहीं है ' अथवा किसी भी सांसारिक पदार्थ से आत्मा को उपमित नहीं किया जा सकता। आत्मा का अस्तित्व है, किन्तु वह अरूपी है-अरूवी सत्ता । इसलिए आत्मा का अस्तित्व केवल केवलज्ञानी के ही प्रत्यक्ष हो सकता है। इन्द्रियज्ञानी उसे साक्षात् नहीं जान सकते । आत्मा का लक्षण है-चैतन्य । कोई भी आत्मा, चाहे वह मुक्त हो या संसारी, चैतन्य से रहित नहीं होती। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा की मुक्त अवस्था में भी ज्ञान और उसका उपयोग दोनों रहते हैं । प्रत्येक आत्मा अनन्त ज्ञान एवं अनन्त दर्शन से सम्पन्न होती है। उसका यह स्वरूप शुद्ध आत्म-दशा में सर्वथा प्रस्फुटित रहता है। आत्मा की त्रैकालिकता चार्वाक दर्शन को छोड़कर सभी भारतीय दर्शन आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व को स्वीकार करते हैं।' काल का अखण्ड प्रवाह प्रवाहित है। उसमें कोई भेद नहीं होता किंतु इन्द्रिय चेतना के स्तर पर जीने वाला व्यक्ति काल के उस अखण्ड प्रवाह का साक्षात् नहीं कर सकता। उसके ज्ञान में काल खंडों में विभाजित हो जाता है। उसके दृष्टिपथ में वर्तमान तो होता है किंतु अतीत एवं भविष्य का दर्शन नहीं होता है । फलस्वरूप कुछ व्यक्ति अतीत एवं भविष्य को नकार कर केवल वर्तमान को ही वास्तविक मान लेते हैं, इस भ्रम का निराकरण करने के लिए सूत्रकार ने कहा- जिसका आदि-अंत नहीं है, उसका मध्य कहां से होगा ? जस्स नत्थि पुरा पच्छा, मज्झे तस्स कओ सिया? पुरा का अर्थ है-अतीतकाल और पश्चाद् का अर्थ है भविष्यकाल । जिसका अतीत में अस्तित्व नहीं है तथा भविष्य में भी अस्तित्व नहीं है तब उसका वर्तमान में अस्तित्व कहां से होगा? इसका तात्पर्य है आत्मा का अस्तित्व सार्वकालिक है, किसी भी काल विशेष में उसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। 1. श्वेताश्वतरोपनिषद् (गोरखपुर, सं. 2014), 5/10 नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः । यद् यच्छरीरमादत्ते तेन तेन स युज्यते।। 2. आयारो,5/139, अपयस्स पयं णत्थि। 3. वही, 5/137, उवमा ण विज्जए। 4. वही, 5/138 5. तेजोबिन्दूपनिषद्, 2/28, भूतं भव्यं भविष्यच्च सर्वं चिन्मात्रमेव हि। 6. आयारो, 4/46 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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