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जैन आगम में दर्शन
आत्मा एक है
जैन दर्शन आत्मवादी दर्शन है। आत्मा उसके दर्शन का केन्द्रीय विचार है। दर्शन जगत में आत्मा की संख्यात्मक अवधारणा पर भी विचार हुआ है। कुछ भारतीय दर्शन आत्मा को एक मानते हैं। कुछ आत्मा की अनेकता में विश्वास करते हैं। जैन दर्शन अनेकान्तवादी है। आत्मा की संख्या के संदर्भ में भी इसी दृष्टि का उपयोग हुआ है। नय अनेकान्त का मूल आधार है। संग्रह नय अभेदग्राही है व्यवहार नय भेद का ग्राहक है। ठाणं का 'एगे आया' का वक्तव्य संग्रहनय की अवधारणा के आधार पर स्वीकरणीय है तथा व्यवहारनय के अनुसार आत्मा की अनेकता भी वास्तविक है। चेतना, उपयोग सम्पूर्ण आत्माओं का सामान्य लक्षण है। इस साधारणता के आधार पर आत्मा को एक कहा गया है। एगे आया इस वक्तव्य में अनन्त आत्माओं का एकत्व में समाहार संग्रहनय की दृष्टि से किया गया है। जैन दर्शन के अनुसार अनंत आत्माएं हैं। उन सबका स्वतंत्र अस्तित्व है। मुक्तावस्था में भी वे किसी ब्रह्म जैसी सत्ता में विलीन नहीं होती। उनका स्वतन्त्र अस्तित्व बना रहता है, इस स्वीकृति के बावजूद भी एगे आया के सिद्धान्त को स्वीकार करने में जैन को कोई कठिनाई नहीं है। संग्रह नय का सशक्त आधार इस यथार्थ को प्रतिष्ठत करता है। आचारांग में आत्माद्वैत
"जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू दास बनाने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू मारने योग्य मानता है, वह तू ही है। आचारांग की यह उद्घोषणा आत्माद्वैत की सहज स्वीकृति है । तेरी और मेरी आत्मा में स्वरूपगत कोई भेद नहीं है। तेरे और मेरे में विभेद करने वाला व्यक्ति अध्यात्म की साधना ही नहीं कर सकता। अहिंसा की अनुपालना आत्मा-आत्मा में परस्पर भेद मानने पर नहीं हो सकती। "जब मैं और तू एक हैं, यह अनुभूति प्रबल होती है तब हिंसा, छल प्रपञ्च इत्यादि पर- प्रताड़क भाव स्वतः ही निःशेष हो जाते हैं । आत्माद्वैत की अनुभूति हिंसा विरति का सुगम उपाय है। अहिंसा प्रशिक्षण के अन्तर्गत आत्माद्वैत की अनुप्रेक्षा का प्रयोग करके हिंसा की समस्या के समाधान की ओर गतिशील हो सकते हैं। जैन दर्शन
1. ब्रह्मबिन्दूपनिषद्, 11, एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः ।
____एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ 2. सांख्यकारिका, 18, जन्ममरणकरणानां, प्रतिनियमादयुगपत् प्रवृत्तेश्च ।
पुरुषबहुत्वं सिद्धं, वैगुण्यविपर्ययाच्चैव ।। 3. ठाणं, 1/2 4. अनुयोगद्वारचूर्णि,पृ.86,स्वसमयव्यवस्थिता: पुन: ब्रवंति उवयोगादिकं सव्वजीवाण सरिसं लक्खणं ......। 5. आयारो, 5/101, तुमंसि नाम सच्चेन 'जं हंतव्वं' ति मन्नसि.......... |
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