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________________ 108 जैन आगम में दर्शन की कल्पना स्थिर हो गई तो ऐसा उत्तर नहीं मिलता।''। इस प्रसंग में आचार्य महाप्रज्ञ का अभिमत उल्लेखनीय है "यह सही है कि अलोक में जीव और पुद्गल नहीं हैं और लोकान्त के सभी भागों में रुक्ष पुद्गल हैं, इसलिए गति नहीं होती। मुक्त आत्मा की गति लोकान्त तक ही क्यों होती है, आगे अलोक में क्यों नहीं होती ? वह गति पुद्गल-परमाणु के योग से नहीं होती, इसलिए अलोक में जीव नहीं है, अजीव नहीं है-यह नियम भी बाधक नहीं बन सकता। लोकान्त के परमाणु रुक्ष हैं, यह नियम भी उसमें बाधक नहीं बन सकता। मुक्त आत्मा की गति अलोक में नहीं होती, इसका नियामक तत्त्व धर्मास्तिकाय ही हो सकता है। जहां तक गति का माध्यम है वहां तक अर्थात् लोकान्त तक मुक्त आत्मा चली जाती है, उससे आगे अलोक में धर्मास्तिकाय नहीं है इसलिए वह वहां नहीं जा सकती।' उपर्युक्त विमर्श के पश्चात् निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि आगम युग में गति सहायक तत्त्व के रूप में धर्मास्तिकाय के अतिरिक्त अन्य कारणों की भी स्वीकृति है। उत्तरकालीन जैन दार्शनिक साहित्य में गति तत्त्व के सहयोगी के रूप में मात्र धर्मास्तिकाय का ही उल्लेख है। वहां पर आगम में प्राप्त अन्य कारणों का उल्लेख ही नहीं किया गया है। विचार-विकास के परिप्रेक्ष्य में देखें तो ऐसा संभव लगता है कि उत्तरकालीन जैन दार्शनिक जैन मान्यताओं को एक व्यवस्थित आकार दे रहे थे। गति सहायक तत्त्व के रूप में प्राप्त कारणों में धर्मास्तिकाय ही असाधारण एवं मुख्य कारण था। क्योंकि इतर कारणों में गति सहायक द्रव्य के रूप में स्वीकृत धर्मास्तिकाय जैसी असाधारणता नहीं थी। अत: गति में असाधारण कारण होने से उत्तरवर्ती आचार्यों ने आगम में प्राप्त अन्य कारणों की उपेक्षा करके धर्मास्तिकाय को ही गति सहायक तत्त्व के रूप में स्वीकृति दी। धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय की तुलना अस्तिकाय की अवधारणा भगवान् महावीर की दर्शन के क्षेत्र में मौलिक देन है। उनमें भी धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय की स्वीकृति जैनेतर अन्य दर्शन में उपलब्ध नहीं है। जैनदर्शनकायहमौलिक अवदान है। आधुनिक कुछ विद्वान् धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय की तुलना क्रमश: सांख्य की प्रकृति के दो गुण रज एवं तम से कर रहे हैं - "Acomparative study of these two substances-Dharma and Adharma can be made with two Gunas of Prakrtitattva(Primordial Matter)ofthe Samkya Philosophy, viz. Rajas (energy)and Tamas (inertia). Rajas, being mobile is 1. मालवणिया, दलसुख, जैन दर्शन का आदिकाल, पृ. 35 2. भगवई (खण्ड 1) भूमिका पृ. 18 3. आवश्यकचूर्णि, पृ. 16,जेण अलोए जीवाजीवदव्वाणं धम्मत्थिकायदव्वस्स अभावे गती चेव गत्थि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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