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________________ तत्त्वमीमांसा dynamic in nature. It keeps the action of Prakrti in motion, i.e. it gives an impetus to action to be set in motion, while Tamas puts restraint on the motion." though they have the same significance in regard to their origin with the attributes of gatisilata of Rajas (motion or dynamism of Rajas) and sthisilata of Tamas (static state or rest)."1 धर्म एवं अधर्म की तुलना प्रकृति के गुण रज एवं तम के साथ करनी समीचीन प्रतीत नहीं होती, क्योंकि रज और तम तो प्रकृति के गुण है जबकि जैन दर्शन ने धर्म एवं अधर्म को स्वतंत्र द्रव्य के रूप में स्वीकार किया है। 2 जैन दर्शन के अनुसार धर्मास्तिकाय स्वयं गतिशील नहीं है, निष्क्रिय है।' वह उदासीन भाव से जीव- पुद्गल की गति में सहायता करता है। गमन में सहयोग करना उसका असाधारण धर्म है। ' प्रकृति में प्राप्त रज नाम का गुण तो स्वयं चंचल है, 'गतिशील है । वैसे ही तमोगुण गुरु एवं आवारक है।' उनकी तुलना धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय से कैसे हो सकती है ? प्रकृति पुद्गल द्रव्य की तरह मूर्त है जबकि धर्म एवं अधर्म अमूर्त द्रव्य हैं।' स्याद्वादमंजरी में रजस् तमस् एवं सत्त्वगुण को उत्पाद, विनाश एवं स्थिति का कारण माना है, अत: उनकी तुलना उत्पाद, व्यय एवं ध्रुवता के साथ तो कदाचित् हो सकती है । अन्यत्र विमर्शनीय है । 8 पर्यायवाची अभिवचन भगवती में पांचों ही अस्तिकाय के अनेक पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख हुआ है । ' आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं पुद्गलास्तिकाय के अभिवचन तो उन अस्तिकायों के स्वरूप को अभिव्यक्त करने वाले हैं, किंतु धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय के अभिवचन विमर्शनीय है । 109 धर्म, धर्मास्तिकाय, प्राणातिपातवेरमण, मृषावादवेरमण आदि पांच वेरमण, मन, क्रोधविवेक आदि से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक, ईर्या, भाषा, एषणा, आदन- निक्षेप एवं उत्सर्ग समिति तथा मनगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति इन सबको धर्मास्तिकाय के अभिवचन कहा गया है । अधर्मास्तिकाय के अभिवचन धर्मास्तिकाय के विपरीत हैं । " 10 1. Dr. Sikdar J. C, Jain Theory of Reality, (वाराणसी, 1991 ) PP 186-187 2. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2/124 3. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, 5/6 4. अंगसुत्ताणि भाग 2 ( भगवई) 2 / 125, ..... .. गमणगुणे । 5. सांख्यकारिका, 13, उपष्टम्भकंचलं च रजः । 6. वही, 13, गुरुवरणकमेव तमः । 7. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2 / 125-126 8. स्याद्वादमंजरी, पृ. 41, रजोगुणात्मकतया सृष्टौ, तमोगुणात्मकतया संहरणे, सात्त्विकतया च स्थितौ ...... । 9. अंगसुत्ताणि 2 ( भगवई) 20 / 14-18 10. वही, 20/14 11. वही, 20/15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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