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________________ 110 जैन आगम में दर्शन प्रस्तुत प्रसंग में प्रदत्त पर्यायवाची शब्दों के उल्लेख में धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय ये दो शब्द तो प्राप्त हैं किंतु अन्य सारे ही अभिवचन, धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय की स्वरूप मीमांसा के अनुकूल नहीं है । वस्तुत: ये पर्यायवाची धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय के न होकर धर्म एवं अधर्म के हैं। धर्म-अधर्म आचार-मीमांसा के शब्द हैं। जीव की शुभ, अशुभ प्रवृत्ति के द्योतक हैं जबकि धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय अजीव हैं। उनकी अवधारणा आचार-मीमांसा में प्रयुक्त धर्म-अधर्म से सर्वथा भिन्न हैं। ___ भगवती टीकाकार के अनुसार धर्म शब्द से साधर्म्य के कारण अस्तिकाय रूप धर्म के पर्याय रूप में प्राणातिपात विरमण आदि का कथन कर दिया है। वस्तुत: प्राणातिपात विरमण आदि चारित्र धर्म हैं।' उनका धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय की अवधारणा से साम्य नहीं है। धर्मास्तिकाय आदि के प्रदेशों का स्वभाव बंध अस्तिकाय का अस्तित्व स्कन्धात्मक है। अखण्ड वस्तु अथवा परमाणुओं के एकीभाव को स्कन्ध कहते हैं। वस्तु के प्रदेश आपस में बन्धे हुए रहते हैं। उन परमाणुओं के पारस्परिक सम्बन्ध को बन्ध कहा जाता है। भगवती में दो प्रकार के बंधों का उल्लेख हुआ है - प्रयोग बंध एवं विस्रसा (स्वभाव) बंध।' सादि एवं अनादि के भेद से विससा बन्ध भी द्विधा विभक्त है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एवं आकाशास्तिकाय के प्रदेशों के पारस्परिक सम्बन्ध को अनादि विससा बन्ध के अन्तर्गत समाविष्ट किया गया है। उनके प्रदेशों में देश बंध है, सर्वबंध नहीं है। धर्म-अधर्म एवं आकाश के प्रदेशों का बंध सार्वकालिक है।' धर्म आदि तीनों अस्तिकाय के प्रदेशों में अनादिकाल स्वभाव बंध है। ये तीनों अस्तिकाय निष्क्रिय हैं ' एवं सर्वलोक व्यापी हैं। इनके प्रदेशों का जीव एवं पुद्गल के प्रदेशों की तरह संकोच विकोच नहीं होता है। ये सर्वकाल में जहां स्थित है वहीं स्थित रहेंगे। इसलिए ही इनके बंध को अनादि के साथ सर्वकालिक भी कहा है। देश बंध सांकल की कड़ियों जैसे होता है। और सर्वबंध क्षीर-नीर की तरह होता है। इन अस्तिकायों का देशबंध है अर्थात् इनके प्रदेशएकदूसरे का स्पर्श करते हैं किन्तुएक दूसरे में समाहित नहीं होते।सबका अवगाहन स्थल स्वतंत्र होता है। धर्म के असंख्य प्रदेश है तो उनके अवगाहन के लिए असंख्य आकाश प्रदेश ही चाहिए। जीव और पुद्गल की तरह उनका अवगाहन नहीं हो सकता। 1. भगवतीवृत्ति, पत्र 776, इह धर्म: -चारित्रलक्षण: स च प्राणातिपातविरमणादिरूपः ततश्च धर्मशब्दसाधादस्तिकायरूपस्यापि धर्मस्य प्राणातिपातविरमणादय: पर्यायतया प्रवर्तन्त इति। 2. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 8/345, दुविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा-पयोगबंधे य, वीससाबंधे य। 3. वही, 8/346 4. वही, 8/347 5. वही, 8/348 6. वही, 8/349 7. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, सूत्र 5/6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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