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तत्त्वमीमांसा
आकाशास्तिकाय
विश्व-संरचना के घटक द्रव्यों के संदर्भ में आकाश का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आकाश तत्त्व को प्राय: सभी भारतीय एवं पाश्चात्य दार्शनिकों ने स्वीकार किया है। यद्यपि उसके स्वरूप के सम्बन्ध में उनमें परस्पर मतभेद हैं पर अस्तित्व के सम्बन्ध में सभी एकमत हैं।
जैन दर्शन ने आकाश को धर्म-अधर्म द्रव्य की तरह ही अमूर्त्त, अजीव, शाश्वत एवं अवस्थित स्वीकार किया है। वह द्रव्यत: एक द्रव्य है किंतु क्षेत्र की दृष्टि सेलोकालोकप्रमाण है। क्योंकि आकाशलोकाकाश एवं अलोकाकाशके भेद से द्विरूप है। वह अनन्तप्रदेशात्मक है। आकाश के प्रदेशों में अवगाह देने की क्षमता है।' अवगाह देना ही आकाशास्तिकाय का लक्षण है। आकाश का वह भाग जो धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल एवं जीव के द्वारा अवगाहित है, वह लोकाकाश है। जहां आकाश के अतिरिक्त अन्य द्रव्य नहीं है वह अलोक है।'
अलोक एक विशाल गोले के समान है। धर्म आदि पांच द्रव्यों को धारण करने वाला लोकाकाश अनन्त आकाश समुद्र में एक द्वीप के समान है। यहां यह तथ्य स्मरणीय है कि आकाश अखण्ड द्रव्य है। अन्य द्रव्यों के अस्तित्व के कारण ही वह लोक और अलोक रूप में विभक्त होता है। आकाश स्वप्रतिष्ठित एवं अनन्त प्रदेशी है किंतु लोकाकाश असंख्यप्रदेशी है।' यह दृश्यमान सम्पूर्ण जगत् लोकाकाश में ही स्थित है। पुद्गलास्तिकाय
सभी भारतीय दर्शनों में पृथक्-पृथक् नाम से पुद्गल की अवधारणा पर विमर्श हुआ है। चार्वाक दर्शन में भूत', सांख्यदर्शन में प्रकृति', न्याय-वैशेषिक में जड़-द्रव्य ', बौद्ध में रूप।। शंकर वेदान्त में माया एवं जैन में पुद्गल के नाम से इसके स्वरूप पर विमर्शहआ है। आधुनिक भौतिक विज्ञान भी मुख्य रूप से पुद्गल पर ही आधारित है। यही एक ऐसा तत्त्व है जो दर्शन और विज्ञान इन दोनों के कार्यक्षेत्र में प्रविष्ट है। हम इस प्रस्तुत शोधप्रबन्ध 1. अंगसुत्ताणि भाग-2 (भगवई), सूत्र 8 / 348 2. वही, 2/127 3. वही, 2/138 4. वही, 2/127 5. वही, 1 3/58, अवगाहणालक्खणे णं आगासत्थिकाए। 6.पंचास्तिकाय, गाथा 3 7. ठाणं, 4/495 8. तत्त्वोपप्लवसिंह (जयराशिकृत) (ले. जयराशि, वारणसी, 1987), पृ. 1 9.सांख्यकारिका, 3 10. वैशेषिक दर्शनम्, (संपा. उदयवीर शास्त्री, गाजियाबाद, 1972) 1/1/5 11. अभिधर्मकोश (ले. आचार्य वसुबन्धु, इलाहाबाद, 1958), 1/124, पृ. 38 12. श्वेताश्वतरोपनिषद्, 4/10, मायां तु प्रकृतिं विद्या। 13. अंगसुत्ताणि - 2 (भगवई) 2/129
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