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________________ जैन आगम में दर्शन में पुद्गल से सम्बन्धित उन कतिपय अवधारणाओं का ही उल्लेख करेंगे, जो आगमोत्तर साहित्य में अल्पमात्रा में चर्चित हुई हैं। अन्य दर्शनों से अथवा विज्ञान के साथ तुलना का प्रयत्न प्रसंग प्राप्त कदाचित् ही हो सकेगा। उन संदर्भों के लिए पाठक Concept of Matter in Jaina Philosophy' आदि पुस्तकों का अवलोकन कर सकते हैं । 112 जैन दर्शन के अनुसार जिसमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श हो वह पुद्गल कहलाता है। वह रूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित तथा लोक का एक अंशभूत द्रव्य है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं गुण के आधार पर उसकी मीमांसा की गई है। द्रव्य की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय अनन्त द्रव्य है । क्षेत्र की अपेक्षा वह लोकप्रमाण है । काल की अपेक्षा नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है । भाव की अपेक्षा से वर्णवान्, गंधवान्, रसवान् और स्पर्शवान् है । गुण की अपेक्षा से ग्रहणगुण-समुदित एवं विभक्त होने की योग्यता वाला है । ' संघात और भेद-मिलना और बिखरना पुद्गल का असाधारण गुण है । ' चार अस्तिकायों में केवल संघात है, भेद नहीं है। भेद के बाद संघात और संघात के पश्चात् भेद – यह शक्ति केवल पुद्गलास्तिकाय में है। दो परमाणु मिलकर द्विप्रदेशी यात् अनन्त परमाणु मिलकर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध बन जाते हैं पुनः वियुक्त होकर वे दो परमाणु यावत् अनन्त परमाणु हो जाते हैं। यदि पुद्गल में संयोग-वियोग गुण नहीं होता तो यह विश्व या तो एक पिण्ड ही होता या केवल परमाणु ही होते । उन दोनों रूपों से वर्तमान विश्व व्यवस्था फलित नहीं होती । पुद्गल द्रव्य रूपी है, इन्द्रियगम्य है, इसलिए इसका अस्तित्व बहुत स्पष्ट है, पर इसकी स्वतंत्र सत्ता का आधार यह संघात भेदात्मक गुण है । जीव और पुद्गल - इन दोनों अस्तिकायों के योग से विश्व की विविध परिणतियां होती हैं । ' पुद्गल की द्विरूपता पुद्गल परमाणु एवं स्कन्ध के भेद से दो प्रकार का है।' यह दृश्य जगत् - पौद्गलिक जगत् परमाणु संघटित है । परमाणुओं से स्कन्ध बनते हैं और स्कन्धों से स्थूल पदार्थ का निर्माण होता है। पुद्गल में संघात एवं भेद - ये दोनों शक्तियां हैं ।' परमाणुओं के संयोग से 5. 6. 7. 1. Sikdar,J. C., 1987, P. V. Research Institute, Varanasi-5 अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 2 / 129 2. 3. वही, 2 / 129 4. महाप्रज्ञ, आचार्य, जैन दर्शन और अनेकान्त, पृ. 23 जैन सिद्धान्त दीपिका, 1 / 9, जीवपुद्गलयोर्विविधसंयोगैः स विविधरूपः । सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, 5 / 25, अणवः स्कन्धाश्च । ठाणं 2 / 221-225 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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