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जैन आगम में दर्शन
समस्या को एक समाधान उपलब्ध हो जाएगा।'' इसलिए अपरिग्रह का विचार और आचार केवल परमार्थ साधना का विषय नहीं है अपितु व्यक्तिगत जीवन के सच्चे सुख एवं स्वस्थ समाज-संरचना के लिए आवश्यक है। जैन आचार की विशेषता
भगवान् महावीर के आचार-दर्शन का आधार समता है। समियाए धम्मे। समता से भिन्न धर्म नहीं हो सकता । जो समतावान होता है, वह पापकारी प्रवृत्ति नहीं करता है। वास्वत में राग-द्वेष रहित कर्म ही आचार है। जिस किसी व्यक्ति के व्यवहार में राग-द्वेष की जितनी प्रबलता होगी उसका आचार एवं व्यवहार उतना ही अधिक दूषित होगा। इसलिए आचार की उच्चता के लिए समत्व में प्रतिष्ठित होना आवश्यक है।
समता दो प्रकार की है-स्वनिश्रित और परनिश्रित । राग और द्वेष के उपशमन के द्वारा अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में संतुलित अनुभूति करना-स्वनिश्रित समता है। सब प्राणी सुख के इच्छुक और दु:ख के विरोधी हैं, इसलिए कोई भी वध के योग्य नहीं है, यह आत्मतुला परनिश्रित समता है। स्वनिश्रित समता की सिद्धि के लिए भगवान् ने कषाय के उपशमन का उपदेश दिया पर निश्रित समता की सिद्ध के लिए प्राणातिपात आदि पापों से विरत होने का उपदेश दिया। समता के इन दो रूपों को निश्चय समता एवं व्यवहार समता भी कह सकते हैं। स्वनिश्रित समता नैश्चयिक समता है और परनिश्रित समता व्यावहारिक है। समता के इन दो रूपों सेदो प्रकार के प्रभाव परिलक्षित हो रहे हैं। समता का स्वाश्रित रूप आत्मशुद्धि परक है तथा पराश्रित रूपजीवन शुद्धि पर आधारित है। इन दो रूपों से व्यक्ति एवं समाज दोनों का शुद्धिकरण साथ-साथ चल रहा है जो अत्यंत अपेक्षित है। जैन आचार का यह वैशिष्ट्य है कि वह निश्चय और व्यवहार में संतुलन बनाए हुए हैं। फलस्वरूप आत्माराधना समाज के विकास में सहयोगी बन जाती है।
संसारी जीव कर्मों से बंधा हुआ है अत: वह कर्म करता है और उसका फल अनुभव करता है। आत्मा और कर्म का अनादिकालीन योग जन्म-मरण का चक्र है। यह निश्चयनय से अनात्मिक है। आत्मा का स्वभाव नहीं है। जो अनात्मिक होता है, वह अध्यात्म दृष्टि से दु:ख है। दु:ख हेय होता है और सुख उपादेय । आचारांग क्रोध से लेकर दु:ख तक की श्रृंखला को छिन्न करने का आदेश देता है।' दु:ख का मूल कषाय है। कषाय के बीज का उन्मूलन होने से दु:ख स्वयं उन्मूलित हो जाता है। कषाय के कृश होने पर समता प्रादुर्भूत होती है। समता ही आचार का हृदय है। दूसरे सारे आचार के तत्त्व इसी का आश्रय लेकर प्राणवान् बनते हैं।
जैन आचार की पूर्व भूमिका ज्ञान है। ज्ञान शून्य आचार को वहां कोई महत्त्व प्राप्त नहीं 1. महाप्रज्ञ, आचार्य, अस्तित्व और अहिंसा, पृ. 6 3 2. आयारो, 5/40 3. वही, 3/28, .......समत्तदंसी ण करेति पावं । 4. आचारांगभाष्यम्, उपोद्घात, पृ. 6 5. आयारो, 3/8 4, से मेहावी अभिनिवट्टेज्जा कोहं च माणं च मायं च लोहं च पेज्जं च दोसंच मोहं च गन्भं च जम्म
चमारंच नरगं च तिरियं च दुक्खं च।
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