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विषय-प्रवेश
उपर्युक्त ग्रन्थों में आगम सम्बन्धी विभिन्न विषयों का विश्लेषण हुआ है। इस शोध प्रबन्ध में हमारा लक्ष्य यह है कि आगमकालीन दार्शनिक चिंतन का आगमोत्तरकालीन दार्शनिक चिंतन की अपेक्षा से जो वैशिष्टय है, उसको प्रदर्शित किया जाए तथा आगमों में प्राप्त तथ्य, जो उत्तरकालीन साहित्य में अल्प चर्चित रहे हैं उनका प्रस्तुतीकरण किया जाए।
आगम साहित्य के यत्किंचित् अध्ययनसे हमें जो मूल्यवान् सामग्री मिली है वह विद्वानों को आगमों के अग्रेतर अध्ययन के लिए भी प्रेरणा देगी, ऐसी आशा है।
कतिपय कारणों से जैनधर्म बहुत समय पूर्व ही दो मुख्य सम्प्रदायों में विभक्त हो गया था । वह विभाजन आज भी यथावत् है। इस विभाजन का एक दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम यह हुआ कि पूरा जैन वाङ्मय भी दो भागों में विभक्त हो गया। परिणाम यह हुआ कि एक सम्प्रदाय के अनुयायी का दूसरे सम्प्रदाय के वाङ्मय से सम्बन्ध प्राय: विच्छिन्न हो गया। यह भगवान् महावीर की मूल्यवान् धरोहर के लिए शुभ नहीं था। सौभाग्य से अब यह साम्प्रदायिक सीमा रेखा शनै: शनै: क्षीण हो रही है। श्वेताम्बर तेरापंथ के वर्तमान आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने दिगम्बर साहित्य का अपने लेखन में पूरे सम्मानपूर्वक विपुल उपयोग किया है। इससे उनके लेखन की व्यापकता समृद्र ही हुई है। जिनजैन आगमों पर प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध आधृत है उनका सम्बन्ध आज श्वेताम्बर संप्रदाय से जुड़ा हुआ माना जा रहा है। हमने अपने शोध-प्रबन्ध में पाया कि इन जैन आगमों के दार्शनिक प्रतिपाद्य का वैशिष्ट्य श्वेताम्बर - दिगम्बर सम्प्रदायातीत है। श्वेताम्बर-दिगम्बर विभाजन में मतभेद का आधार मुख्यत: आचार-विषयक है। जैन आगमों में द्रव्य, आत्मा, कर्म इत्यादि आचारेतर विषयों पर जो मूल्यवान् सामग्री उपलब्ध होती है उसके सम्बन्ध में मतभेद की शायद ही कहीं कोई गुंजाइश हो । ऐसी स्थिति में इन आगमों का अनुशीलन जैन दर्शन पर काम करने वाले सभी विद्वानों तथा छात्रों के लिए समान रूपसे उपयोगी होगा- ऐसी हमारी विनम्र सम्मति है।
__ तत्त्वार्थ सूत्र सभी जैन सम्प्रदायों को मान्य है। तत्त्वार्थसूत्रकार जैन आगमों के प्रतिपाद्य को सूत्रबद्ध कर रहे थे। प्रत्येक सूत्रकार की अपनी दृष्टि रहती है। वह किस विषय पर कितना बल दे अथवा किस विषय को सर्वथा छोड़ दे। इसके लिए वह स्वतंत्र है। तत्त्वार्थसूत्र के प्रतिपाद्य के साथ-साथ आगमकालीन उन अवधारणाओं पर भी विचार-विमर्श करना कितना मूल्यवान्
और महत्त्वपूर्ण हो सकता है, यह विद्वानों के लिए विमर्शनीय है। जहां तक हमारा सम्बन्ध है, हम समझते हैं कि उन विषयों की उपेक्षा करना जैन परम्परा को उस विचार वैभव से वञ्चित कर देना होगा. जिस विचार वैभव की वह सहज ही उत्तराधिकारिणी है।
जैन आगम महासमुद्र है। कोई एक विनम्र शोध छात्र उसकी सम्पूर्ण गरिमा को उजागर कर सके, यह आशा नहीं करनी चाहिए। किन्तु यदि प्रस्तुत शोधप्रबन्ध से जैन आगमों के वैशिष्ट्य की एक हल्की-सी झांकी भी विद्वानों को मिल पाई तो मैं अपने परिश्रम को सार्थक मानूंगी।
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