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________________ 212 जैन आगम में दर्शन आचार्य भिक्षु ने 'ज्ञान-मोह' शब्द की मीमांसा में लिखा है कि ज्ञानमोह से ज्ञान में व्यामोह उत्पन्न होता है, वह ज्ञानावरणीय कर्म का उदय है, मोहनीय कर्म का उदय निश्चित रूप से ही नहीं है।' इस आधार पर प्रस्तुत कांक्षामोहनीय का सम्बन्ध भी ज्ञानमोह की भांति ज्ञानावरण से माना जा सकता है। 'कसायपाहुड' में बतलाया गया है कि गणधर के संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय होने पर उनके संशय को दूर करना दिव्यध्वनि का स्वभाव है।' आनन्द श्रमणोपासक के अवधिज्ञान के सम्बन्ध में गौतम को शंका, कांक्षा और विचिकित्सा उत्पन्न हुई थी। तायस्त्रिंश देवों के विषय में भी गौतम शंकित, कांक्षित और विचिकित्सित हुए थे। इन दोनों संदर्भो से यह स्पष्ट फलित होता है कि शंका, कांक्षा और विचिकित्सा का सम्बन्ध ज्ञानावरण के उदय से भी है। कांक्षामोहनीय : स्वरूप भिन्नता सम्यक्त्व के पांच अतिचार हैं। उनमें प्रथमतीन हैं-शंका, कांक्षा और विचिकित्सा।' इनका सम्बन्ध दर्शनमोह से है। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि जहां शंका, कांक्षा और विचिकित्सा मूल तत्त्व से सम्बद्ध होते हैं, वहां दर्शनमोह का वेदन होता है और जहां वे अन्य विषयों से सम्बद्ध होते हैं, वहां ज्ञानमोह का वेदन होता है। तेरह अंतरों के प्रसंग में कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन का सम्बन्ध ज्ञानमोह से प्रतीत होता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कांक्षामोहनीय नामक कर्म ज्ञानावरणीय एवं मोहनीय- इन दोनों ही कर्मों से सम्बंधित है। ज्ञानावरणीय एवं मोहनीय कर्म के उपभेद कांक्षामोहनीय इस नाम का साम्य तो है किंतु इनका स्वरूप सर्वथा भिन्न प्रकार का है जिसका स्पष्ट अवबोध उपर्युक्त चर्चा से हो जाता है। कर्म का वेदन : व्यक्त एवं अव्यक्त ___ कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन पृथ्वीकाय आदि अविकसित चेतना वाले एकेन्द्रिय जीवों सेलेकर चारों गतियों के जीवों के होता है।' पृथ्वी आदि के जीवों की चेतना अविकसित होती है। उनमें बौद्धिक, मानसिक और वाचिक विकास नहीं होता । इस अवस्था में उनमें कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन कैसे सम्भव हो सकता है ? यह प्रश्न स्वाभाविक है। इस प्रश्न 1. इन्द्रियवादी की चौपाई ढाल 10 गाथा 33 नाणमोह चाल्यो सूतर मझै, ते ज्ञान में उपजे व्यामोह। ते ज्ञानावरणी रा उदा थकी ते मोह निश्चै नहीं होय। 2. कसाय पाहुड, प्रथम अधिकार गाथा ।, पृ. 1 2 6 संसयविवज्जासाणज्झवसायभावगयगणहरदेवं पडि वट्टमाणसहावा। 3. उवासगदशा 1/79, 80 4. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 10/49 उवासगदशा 1/79, 80, सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा, न समयरिव्वा, तं जहा--संका, कंखा, वितिगिच्छा......... 6. कांक्षा मोहनीय की उपर्युक्त चर्चा भगवई (खण्ड-1) पृ. 89 पर आचार्यश्री महाप्रज्ञ द्वारा की गई है। 7. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 1/16 3-168 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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