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________________ कर्ममीमांसा 213 कोस्वयं भगवतीकार ने भी उपस्थित किया है। इसके समाधान में उन्होंने लिखा है-पृथ्वीकाय के जीवों में बौद्धिक, मानसिक और वाचिक विकास नहीं होता। वे नहीं जानते कि हम कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन कर रहे हैं, फिर भी उसका वेदन करते हैं। इस समाधान से यह फलित होता है कि वेदन के दो प्रकार हैं- व्यक्त और अव्यक्त । अविकसित जीवों के कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन अव्यक्त होता है। वह इन्द्रिय गम्य नहीं है। भगवती में इस संदर्भ में 'तमेव सच्चंणीसंकं' यह साक्ष्य उद्धृत किया है।' जिस तथ्य का अवबोध प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाणों से प्राप्त नहीं होता है वहां पर आगम प्रमाण से तथ्य को प्रमाणित किया जाता है। भारतीय दर्शन में शब्द प्रमाण को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। अतीन्द्रिय पदार्थ की अवगति का मुख्य साधन शब्द प्रमाण ही है। जो तथ्य प्रत्यक्ष एवं अनुमान से ज्ञात नहीं होते उनको जानने का एकमात्र साधन आगम है। इसी प्रकार की अवगति के लिए ही आगम का वैशिष्ट्य है। वेद के वैशिष्ट्य को भी इसी आधार पर विवेचित किया गया है। मोहनीय कर्म के बावन नाम समवायांग में मोहनीय कर्म के बावन नामों का उल्लेख है। क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार कषाय मोहनीय कर्म के अवयव हैं। अवयवों में अवयवी का अथवा खण्ड में समुदय का उपचार कर इन चारों कषायों के नामों को मोहनीय के नाम रूप में उल्लिखित किया है। इनमें क्रोध के दस, मान के ग्यारह, माया के सतरह और लोभ के चौदह नाम गिनाए हैं। उन सबका योग बावन होता है। वे नाम निम्न हैं-क्रोध, कोप, रोष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, चांडिक्य, भंडन और विवाद । मान, मद, दर्प, स्तम्भ, आत्मोत्कर्ष, गर्व, पर-परिवाद, उत्कर्ष, अपकर्ष, उन्नत और उन्नाम। माया, उपधि, निकृति, वलय, गहन, नूम, कल्क, कुरुक, दम्भ, कूट, जैह्य, किल्विषिक, अनाचरण, गूहन, वंचन, परिकुंचन और साचियोग। लोभ, इच्छा, मूर्छा, कांक्षा, गृद्धि, तृष्णा, मिथ्या, अभिध्या, कामाशा, भोगाशा, जीविताशा, मरणाशा, नंदी और राग। मोहनीय कर्म के भेदों एवं उपभेदों को ही उसके नाम के रूप में उल्लिखित किया गया है। 1. भगवई (खण्ड-!) पृ. 87-88 2. ऋग्वेद संहिता, सायणभाष्य, उपोद्घात, पृ. 26 पर उद्धृत, (वाराणसी, 1997) प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुद्धयते। एनं विदन्ति वेदेन तस्माद्वेदस्य वेदता।। 3. समवाओ 521 मोहणिज्नस्स णं कम्मस्स बावन्नं नामज्जा पण्णत्ता, तं जहा-कोहे, रोसे............ 4. समवाओ पृ. 218 (टिप्पण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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