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जैन आगम में दर्शन
मोह के तीन प्रकार
स्थानांग में ज्ञानमोह, दर्शनमोह एवं चारित्रमोह के भेद से मोह को तीन प्रकार का कहा गया है।' वृत्तिकार नेज्ञानमोह का अर्थज्ञानावरण का उदय और दर्शनमोहका अर्थसम्यक् दर्शन का मोहोदय किया है। यहां मोह का अर्थ आवरण नहीं किंतु दोष है। ज्ञानमोह होने पर प्राणी का ज्ञान अयथार्थ हो जाता है। दर्शनमोह होने पर उसका दर्शन/श्रद्धा भ्रान्त हो जाती है तथा चारित्रमोह होने पर आचार मूढ़ता हो जाती है। चेतना में मोह या मूढ़ता उत्पन्न करने का कार्य ज्ञानावरण नहीं किंतु मोहकर्म करता है। मोहनीय कर्म के दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय एवं चरित्रमोहनीय दर्शनमोहकर्म के उदय से दर्शनमोह एवं चारित्रमोहकर्म के उदय से चारित्रमोह होता है। ज्ञानावरण का उदय ज्ञानमोह का कारण है। मोह शब्द का प्रयोग दर्शन एवं चारित्र के साथ तो होता है किंतु यहां पर ज्ञान के साथ भी हुआ है जो विशेष मननीय है। दर्शन एवं चारित्र के उदय से जीव की दृष्टि एवं आचरण विकृत हो जाता है। वह न तो तत्त्व का यथार्थ श्रद्धान कर सकता है न ही उसका आचरण लक्ष्यानुगामी होता है। ज्ञानमोह का प्रयोग इन दो के साथ करने का कारण यह भी प्रतीत होता है कि श्रद्धा के लिए पूर्व में तत्त्व का ज्ञान भी आवश्यक है। यदि तत्त्व का ज्ञान मिथ्या है तो श्रद्धा सम्यक् नहीं हो सकती है। दर्शन मोह का अपनयन ज्ञानमोह के अपनयन की अपेक्षा भी रखता है। ज्ञान जब यथार्थ होता है तब दृष्टि का परिष्कार भी हो जाता है, दर्शन के परिष्कार से आचरण परिष्कृत हो जाता है अत: संभव ऐसा लगता है आगमकार इन तीनों में एक क्रम देख रहे हैं। इनका परस्पर कार्यकारण भाव भी अभिव्यञ्जित हो रहा है। ज्ञान की यथार्थता से दर्शन विशुद्धि एवं दर्शन विशुद्धि से आचारविशुद्धि । स्थानांग के दूसरे स्थान में दो प्रकार के मोह का निरूपण हुआ है - ज्ञानमोह और दर्शनमोह। यहां भी आगमकार चारित्रमोह को छोड़ देते हैं किंतु ज्ञानमोह का उल्लेख अवश्य करते हैं इससे भी ज्ञानमोह और दर्शनमोह में कोई सम्बन्ध प्रतीत होता है। जब तक तत्त्व की सही समझ नहीं होगी तब तक उसमें यथार्थ श्रद्धा भी कैसे हो सकती है ? यद्यपि परम्परा में यह मान्य है कि दर्शन के सम्यक् होने से ही ज्ञान सम्यक् होता है। दर्शन की विशुद्धता से पूर्व ज्ञान भी सम्यक् नहीं होता है, यह वक्तव्य भी निरपेक्ष नहीं है। एक विशेष भूमिका की प्राप्ति के बाद दर्शन की विशुद्धता से ज्ञान की विशुद्धता होती है-यह वक्तव्य समीचीन है किंतु इस भूमिका की प्राप्ति में ज्ञानमोह का आंशिक रूप से हटना भी आवश्यक प्रतीत होता है। भगवान् महावीर ने दशवैकालिक में ज्ञान को प्रधानता प्रदान की है। वहां पर आचार को ज्ञानावलम्बी
1. ठाणं 3/178 तिविहे मोहे पण्णत्ते, तं जहा–णाणमोहे, दंसणमोहे, चरित्तमोहे । 2. स्थानांगवृत्ति, पृ.64 ज्ञांन मोहयति- आच्छादयतीति ज्ञानमोहो ज्ञानावरणोदय:, एवं दंसणमोहे
चेव,सम्यग्दर्शन मोहोदय इति। 3. ठाणं, 149 (टिप्पण) 4. उत्तरज्झयणाणि 3 3/8 मोहणिज्ज पि दुविहं, दंसणे चरणे तहा। 5. ठाणं 2/422
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