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कर्ममीमांसा
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माना गया है।' यद्यपि वहां पर दर्शन का उल्लेख नहीं हुआ है किंतु आचारपक्ष में ज्ञान का प्राधान्य स्पष्ट है। वैसे ही दर्शन की विशुद्धि में दर्शन मोहनीय का विलय उपादान कारण है, वहां ज्ञानावरणीय के विलय को निमित्त कारण माना जा सकता है। आयुष्य का बंध कब और कैसे?
आयुष्य कर्म जीव को नियत गति में प्रतिबद्ध किए हुए रखता है। जैसे बेड़ी से बंधा हुआ आदमी नियत स्थान से प्रतिबद्ध रहता है, वैसे ही आयुष्य के पुद्गल नरक आदि किसी एक गति से प्राणी को प्रतिबद्ध करते हैं। आयुष्य कर्म का बंध जीवन में एक बार होता है तथा उसके बंधने का समय भी निर्धारित होता है। देव, नारक तथा असंख्येय वर्षजीवी मनुष्य और तिर्यञ्च वर्तमान जीवन का आयुष्यछहमाहशेष रहने पर अगले जन्म का आयुष्य बांधते हैं। निरुपक्रम आयु वाले मनुष्य और तिर्यञ्च वर्तमान भव की 1/3 भाग आयु शेष रहने पर अगले भव का आयुबंध करते हैं। सोपक्रम आयु वाले जीव वर्तमान भव का 1/3 भाग आयुष्य शेष रहने पर अथवा उत्तरोत्तर तीसरे भाग का तीसरा भाग (छठा, नौवां, सत्ताईसवां) शेष रहने पर आयुबंध करते हैं। जैन कर्म सिद्धान्त का आयुष्य के बंधन का यह निर्धारित क्रम है। आयुष्यकर्म के सहयायीबंध
आयुष्यकर्म के साथ ही जाति, गति, स्थिति, प्रदेश, अनुभाग एवं अवगाहना-इन छह का बंध और हो जाता है। इन छहों का आयुष्य के साथ निधत्त हो जाता है। निधत्त का अर्थ है कर्म का निधेक रूप में बंध होना। एक साथ जितने कर्म-पुद्गल जिस रूप में भोगे जाते हैं, उस रूप-रचना का नाम निषेक है।' आचार्य महाप्रज्ञ ने कर्म-पुद्गलों की एक काल में उदय होने योग्य रचना विशेष को निषेक कहा है। जिस समय आयुष्य कर्म का बंध होता है, तब वह जाति, गति आदि छहों के साथ निधत्त-निषिक्त होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि आयुष्य के साथ हो इनका बंध हुआ एवं उनका भोग भी एक साथ ही होगा। अमुक आयु का बंध करने वाला जीव उसके साथ-साथ एकेन्द्रिय आदि पांच जातियों में से किसी एक जाति का, नरक आदि चार गतियों में से एक गति का, काल-मर्यादा का, अवगाहना-औदारिक या वैक्रिय शरीर में से किसी एक शरीर तथा आयुष्य के प्रदेशों-- परमाणु संचयों का और उसके अनुभाग-विपाक शक्ति का भी बंध करता है। समवायांग में छह प्रकार के आयुष्य बंध के
1. दसवेआलियं 4/10 पढमं नाणं तओ दया। 2. उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य वृति पत्र 641 3. आवश्यक चूर्णि (पूर्वभाग) पृ.366 4. ठाणं, 6/116 5. (क) समवायांग वृति पत्र, 147, निषेकश्च प्रतिसमयं बहुहीनहीनतरस्य दलिकस्यानुभवनार्थं रचना।
(ख) भगवति वृति 6-34 कर्मनिषेको नाम कर्मदलिकस्य अनुभवनार्थं रचना विशेष:। 6. महाप्रज्ञ, आचार्य, जैनदर्शन : मनन और मीमांसा, पृ. 313
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