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________________ 216 जैन आगम में दर्शन उल्लेख में जातिनामनिधत्तआयुष्क आदि का ही उल्लेख किया है।' इस उल्लेख का तात्पर्य उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट ही है कि इन छहों का आयुष्य के साथ बंध एवं भोग होता है। पातञ्जल योगसूत्र में भी जाति, आयु, भोग-इन तीनों का एक साथ उल्लेख हुआ है।' आयुष्यकर्म एवं आकर्ष की व्यवस्था आयुष्य बंध के साथ होने वाले जाति, गति आदि का बन्ध एक आकर्ष से लेकर आठ आकर्ष तक हो सकता है। आकर्ष का अर्थ है-कर्म-पुद्गलों का ग्रहण। जब आयुष्य बंध का अध्यवसाय तीव्र होता है तो एक ही आकर्ष से जातिनामनिषिक्त आयुष्य आदि का बंध हो जाता है। यदि आयुष्य बंध का अध्यवसाय मंद, मंदतर, मंदतम होता है तो दो-तीन से लेकर आठ आकर्ष तक हो जाते हैं। अध्यवसाय के तारतम्य के आधार पर आकर्षों की न्यूनाधिकता होती है। भगवती में कर्मबंध के प्रसंग में 'सव्वेणं सव्वे' का सिद्धान्त प्रतिपादित है। इसका तात्पर्य है सम्पूर्ण आत्म प्रदेशों से एक काल में जितने कर्म-पुद्गलों का ग्रहण करना है उनका एक साथ ग्रहण किया जाता है, उनका आंशिक ग्रहण नहीं होता है। आकर्ष का सिद्धान्त इस प्रसंग में विमर्शनीय है। एक साथ कितने कर्मों का बंध? जैन कर्म सिद्धान्त में ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म माने गए हैं। उन आठ कर्मों में एक साथ जीव कितने कर्मों का बंध कर सकता, इसका विमर्श भी प्राप्त होता है। भगवती में कहा गया-जीव एक साथ सात, आठ, छह और एक कर्म का.बंध करता है। जिस जीव ने आयुष्य कर्म का बंध कर लिया है वह सात कर्मों का बंध एक साथ करता रहता है। आयुष्य कर्म का बंध एक बार होता है। जिस समय वह बंधता है तब जीव के आठ कर्म का एक साथ बंध होता है। कर्मबंध एवं गुणस्थान आयुष्य कर्म का बंध तीसरे गुणस्थान को छोड़कर पहले से सातवें गुणस्थान तक होता है। सातवें गुणस्थान में भी आयुष्य कर्म का बंध प्रारम्भ नहीं हो सकता, यदि छठे गुणस्थान में आयुष्य का बंध प्रारम्भ हो गया और उस बंधन के मध्य ही जीव को सातवां समवाओ, पइण्णग्गसमवाओ 176 2. पातञ्जलयोगसूत्र 2/13 सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः । 3. समवायांग वृति, पत्र 148 आकर्षो नाम कर्मपुद्गलोपादानं। 4. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 1/118 5. वही, 40/2 जीवा किं सत्तविहबंधगा? अट्ठविहबंधगा? छव्विहबंधगा? एगविहबंधगा वा? गोयमा! सत्तविहबंधगा वा जाव एगविहबंधगा वा। 6. झीणी चर्चा, (ले. जयाचार्य, लाडनूं, 1985) ढाल 17/4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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