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कर्ममीमांसा
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गुणस्थान आ गया तब आयुष्यकर्म बंध की पूर्णाहूति सातवें में हो सकती है। दसवें गुणस्थान में आयुष्य एवं मोहकर्म को छोड़कर शेष छह कर्मों का बंध होता है। समवायांग सूत्र में उल्लेख है कि दसवें गुणस्थान में कर्म की सतरह प्रकृतियों का बंध होता है। वेसतरह प्रकृतियां आयुष्य एवं मोह को छोड़कर अन्य छह कर्मों से ही सम्बंधित है। भगवती में एक साथ छह कर्मों के बंध का उल्लेख है। किंतु छह कर्म की कितनी एवं कौन-सी प्रकृतियां का बंध होता है, यह उल्लेख नहीं है। इसका उल्लेख समवायांग में हुआ है। समवायांगवृत्ति में भी यह तथ्य प्रतिपादित हुआ है। दशम गुणस्थानवी जीव एक सौ बीस कर्म प्रकृतियों में से केवल सतरह प्रकृतियों का बंध करता है। अवशिष्ट एक सौ तीन प्रकृतियों का पूर्ववर्ती गुणस्थान में बंध की अपेक्षा से व्यवच्छेद हो जाता है। इन सतरह प्रकृतियों में भी सोलह प्रकृतियों का बंध इसी दसवें गुणस्थान में व्यवच्छिन्न हो जाता है-ज्ञान की पांच, दर्शन की चार, अन्तराय की पांच, उच्चगोत्र और यशकीर्ति । केवल सातवेदनीय कर्म प्रकृति का बंध मात्र रह जाता है।' मोहनीयकर्म के उदय में असातवेदनीय कर्म का बंध होता है। मोहनीय के उपशम या क्षय में केवल सातवेदनीय का ही बंध होता है। ग्यारहवें गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान में एकमात्र सात वेदनीय कर्म का ही बंध होता है। चौदहवें गुणस्थान में कर्म का बंध होता ही नहीं है। उपर्युक्त वर्णन से कर्मबंध की निम्न अवस्थाएं बनती हैं
1. एक साथ आठ कर्मों का बंध । 2. एक साथ सात कर्मों का बंध। 3. एक साथ छह कर्मों का बंध। 4. एक साथ एक ही कर्म का बंध । 5. अबंध, किसी कर्म का बंध नहीं होता।
इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि एक साथ दो, तीन, चार एवं पांच कर्मों का बंध हो ही नहीं सकता है। कर्म बंध की यह स्थिति जीव के गुणस्थान के आधार पर है। अमुक गुणस्थानवी जीव, अमुक कर्म का बंध करेगा, यह प्रस्तुत विश्लेषण से स्पष्ट है। आठों कर्मों के बन्ध के निमित्त
भगवती में आठों कर्मों का पृथक्-पृथक् कर्मशरीर के रूप में वर्णन किया है। ज्ञानावरणीय 1. समवायांगवृत्ति, पत्र 34, सूक्ष्मसम्पराय: उपशमक: क्षपको वा सूक्ष्मलोभकषायकिट्टिकावेदको भगवान् -
पूज्यत्वात् सूक्ष्मसम्परायभावे वर्तमान:-तत्रैव गुणस्थानकेऽवस्थित: नातीतानागतसूक्ष्मसम्परायपरिणाम इत्यर्थः, ससदश कर्मप्रकृतिनिबध्नाति विंशत्युत्तरे बन्धप्रकृतिशतेऽन्या न बध्नातीत्यर्थः, पूर्वतरगुणस्थानकेषु बंधं प्रतीत्य तासां व्यवच्छिन्नत्वात्, तथोक्तानां सप्तदशानां मध्यादेका साताप्रकृतिरुपशान्तमोहादिषु बन्धमाश्रित्यानुयाति, शेषा: षोडशेहैव व्यवच्छिद्यन्ते, यदाह-नाणं पूतराय 10 दसगं देसण चत्तारि 14 उच्च 15 जसकित्ती 16। एया सोलसपयडी सुहमकसायंमि वोच्छिन्ना सूक्ष्मसम्परायात्परे न बध्नन्तीत्यर्थ:।
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