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जैन आगम में दर्शन
कर्मशरीर प्रयोग बंध से लेकर अन्तराय कर्मशरीर प्रयोगबन्ध तक आठ कर्मशरीर प्रयोग बंध होते हैं।' इन आठों ही कर्मशरीर के बंध के कारण भी पृथक्-पृथक् हैं।
ज्ञान-प्रत्यनीकता, ज्ञान निहवन, ज्ञानान्तराय, ज्ञानप्रद्वेष, ज्ञानाशातना एवं ज्ञानविसंवादन के निमित्त से ज्ञानावरणीय कर्मशरीर प्रयोग बंध नाम के कर्म के उदय से ज्ञानावरणीय कर्मशरीर का प्रयोग बंध होता है अर्थात् ज्ञान प्रत्यनीकता आदि हेतुओं के साथ ज्ञानावरण का उदय होने से ही पुन: ज्ञानावरण का बंध होता है। इसका तात्पर्य है- ज्ञान प्रत्यनीकता आदि निमित्त कारण है एवं ज्ञानावरण का उदय एक अपेक्षा से उपादान कारण है। इसी प्रकार आठों ही कर्मों के बंध में निमित्त कारणों के साथ-साथ उन-उन कर्मों के उदय से ही वे कर्म पुन: बंधते हैं। अर्थात् ज्ञानावरण का बंध तब ही होगा जब ज्ञानावरण का उदय हो। यद्यपि यह कहा जाता है कि जीव के एक साथ निरन्तर सात या आठ कर्मों का बंध हो रहा है। यह वक्तव्यता भी सापेक्ष है। उन कर्मों के बंध के समय थोड़ी भागीदारी तो सब कर्मों की होगी किंतु प्रधानता उसी कर्म की होगी जिसके उदय के कारण कर्मबंध हो रहा है। कर्मों का अधिक हिस्सा उसी कर्म को प्राप्त होगा जिसके कारण कर्म का बंध हो रहा है। भगवती में वर्णित आठों कर्म के बंध के निमित्तों का वर्णन उत्तरवर्ती साहित्य में भी विस्तार से हुआ है।
भगवती में वर्णित कर्मबंध के कारणों के परिप्रेक्ष्य में व्यक्ति की आचार संहिता का निर्माण करना महत्त्वपूर्ण हो सकता है। व्यक्ति का वार्तमानिक आचार-व्यवहार उसके भविष्य का निर्धारक होता है। भगवती में वर्णित कर्मबंध के हेतुओं पर जब विमर्श करते हैं तो अधिकांश हेतु मनुष्य के आचार-व्यवहार से ही जुड़े हुए हैं। इनको और अधिक विस्तृत दायरे में देखना चाहें तो समनस्क जीवों तक इसका विस्तार किया जा सकता है। कर्म का बन्ध तो समनस्कअमनस्क सभी के होता है। अमनस्क जीवों में तो इन निमित्तों का व्यवहार परलिक्षित नहीं है फिर उनके इन कर्मों को बंध का हेतु क्या बनता होगा? संभव ऐसा लगता है कि अमुकअमुक कर्म का उदय ही उस-उस कर्म के बंध का मुख्य कारण है। कर्मों का उदय तो सभी जीवों के होता है अत: उनसे कर्म का बंध हो जाता है। जैसा कि भगवती में कहा गया है कि ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का उदय भी उन-उन कर्मों के बन्ध का कारण है।' कर्म का अबाधाकाल
सामान्यत: कर्मों की दो अवस्थाएं होती हैं-उदयावस्था एवं अनुदयावस्था । कर्म जब तक उदय में नहीं आते तब तक जीव पर उनका कोई प्रभाव नहीं होता। वे मात्र जीव से चिपके रहते हैं। कर्म का बंध होते ही उसमें फल देने की शक्ति नहीं होती है। एक निश्चित समय
1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 8 / 4 1 9 कम्मासरीरपयोगबंधे.......अट्ठविहे पत्ते, तं जहा -
नाणावरणिज्नकम्मासरीरप्पयोगबंधे जाव अंतराइयकम्मासरीरप्पयोगबंधे। . 2. वही, 8/420-433
3. वही, 8/420-433
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