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________________ कर्ममीमांसा 219 सीमा के बाद हो उनमें फल देने का सामर्थ्य उत्पन्न होता है। उससे पहले कर्म का अवस्थान मात्र होता है। उसे कर्मशास्त्रीय भाषा में 'अबाधाकाल' कहा जाता है। कर्मउदय के निमित्त काल मर्यादापूर्ण होने पर कर्म का वेदन या भोग प्रारंभ होता है। कर्म अपनी उदयावस्था में ही शुभ-अशुभ फल प्रदान करने में समर्थ होते हैं। कर्म का परिपाक एवं उदय अपने आप भी होता है तथा अन्य बाहरी निमित्त मिलने पर भी होता है। कर्म का उदय सहेतुक एवं निर्हेतुक उभय प्रकार का है।' स्थानांग में क्रोध, अहंकार, माया एवं लोभ को अपनी उत्पत्ति के निमित्तों की अपेक्षा से चार-चार प्रकार का बताया है 1. आत्म प्रतिष्ठित-जो अपने ही निमित्त से उत्पन्न होता है। 2. पर-प्रतिष्ठित-जो दूसरों के निमित्त से उत्पन्न होता है। 3. तदुभय प्रतिष्ठित-जो स्व और पर दोनों के निमित्त से उत्पन्न होता है। 4. अप्रतिष्ठित-जो केवल क्रोध (अहंकार, माया एवंलोभ) वेदनीय के उदय से उत्पन्न होता है। स्वयं के प्रमाद से इहलोक एवं परलोक सम्बन्धी हानि को देखकर जो क्रोध आदि कषाय पैदा होते हैं वे आत्मप्रतिष्ठित कहलाते हैं। दूसरे के द्वारा कृत आक्रोश आदि के कारण जो क्रोध आदि उत्पन्न होते हैं वे पर-प्रतिष्ठित कहलाते हैं। जिस क्रोध के उदय में स्व एवं पर दोनों निमित्त बनते हैं वह तदुभय प्रतिष्ठित है तथा जिसमें स्वयं का प्रमाद एवं पर का अक्रोश आदि निमित्त नहीं बनता केवल क्रोधवेदनीय आदि कर्मों के उदय से जो होता है वह अप्रतिष्ठित कहलाता है। यद्यपि यह चौथा भेद जीव प्रतिष्ठित तो है फिर भी वर्तमान में स्वयं के प्रमाद आदि के निमत से उदय में नहीं आया है अत: इसे अप्रतिष्ठित कहा गया है। विभिन्न निमित्तों से उत्पन्न होने के कारण क्रोध आदि के भेद कर दिए गए हैं। यह कारण में कार्य का उपचार है। वस्तुत: कार्यरूप क्रोध तो एक जैसा ही होता है। उसमें कोई विभेद नहीं होता। क्रोध आदि के चार प्रकारों में प्रथम तीन भेद सहेतुक कर्म के उदय के निदर्शन हैं एवं चौथा भेद निर्हेतुक कर्मोदय का उदाहरण है। कर्म पर अंकुश __ जैनदर्शन में कर्म को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है फिर भी उसकी निरंकुश सत्ता नहीं मानी 1. स्थानांगवृत्ति, पृ. 129 "उक्तं च-सापेक्षाणि च निरपेक्षाणि च कम्माणि फलविपाकेषु"। 2. ठाणं 4/76-79 3. स्थानांगवृत्ति, पृ. 129 आत्मापराधे नै हिकामुष्मिकापायदर्शनादात्मविषय आत्मप्रतिष्ठित: परेणाक्रोशादिनोदीरित: परविषयो वा परप्रतिष्ठित: आत्मपरविषय उभयप्रतिष्ठित: आक्रोशादिकारणनिरपेक्ष: केवलं क्रोधवेदनीयोदयाद् यो भवति सोऽप्रतिष्ठितः। 4. स्थानांगवत्ति, पृ. 129 अयं च चतुर्थभेदो जीवप्रतिष्ठितोऽपि आत्मादिविषयेऽनुत्पन्नत्वादप्रतिष्ठित उक्तः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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