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कर्ममीमांसा
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के कारण कर्मबन्ध का भागी है या नहीं यह सैद्धान्तिक दृष्टि से विमर्शनीय है। व्यवहार में तो डाक्टर को दोषी नहीं माना जाता है।
___ इसके विपरीत एक व्यक्ति रज्जु को सर्प मानकर उसके टुकड़े-टुकड़े करता है तो भी वह हिंसा के कर्मबन्ध का भागी होता है, क्योंकि उसका अध्यवसाय क्लिष्ट है। हिंसा के भाव से युक्त है। इसलिए कर्मबंध की प्रक्रिया में अध्यवसाय की मंदता, तीव्रता एवं मध्यस्थता बड़ा कारण बनती है। इस प्रसंग में तन्दुल मत्स्य का उदाहरण ज्ञातव्य है।' कांक्षा मोहनीय विमर्श
सामान्यत: कांक्षामोहनीय कर्म को मोहनीय कर्म का एक उपभेद माना जाता है। भगवती सूत्र में उल्लेख है कि श्रमण-निर्ग्रन्थ ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चरित्रान्तर, लिंगान्तर, प्रवचनान्तर, प्रवचनी अन्तर, कल्पान्तर, मार्गान्तर, मतान्तर, भंगान्तर, नयान्तर, नियमान्तर और प्रमाणान्तर - इन तेरह अंतरों से कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं।' यहां सहज की एक प्रश्न उपस्थित होता है कि श्रमण मिथ्यात्व की सीमा का अतिक्रमण कर सम्यक्त्व के साथ व्रत की भूमिका पर आरूढ़ है। श्रमणत्व का प्रारम्भ ही छठे गुणस्थान से होता है। मिथ्यात्व की स्थिति प्रथम एवं तृतीय गुणस्थान तक ही है फिर वे कांक्षामोहनीय का वेदन कैसे करते हैं ?
भगवती के अनुसार जैन मुनि भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं । वेदन के पांच कारण बतलाए गए हैं-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, भेद और कलुष । एक ही विषय में अनेक निरूपण, वितर्क और विकल्प सामने आते हैं, तब कांक्षामोहनीय का वेदन शुरु हो जाता है। श्रीमद् जयाचार्य ने कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन का अर्थ मिथ्यात्व मोहनीय किया है। उनका तर्क है कि जिस समय कांक्षामोहनीयकर्म का वेदन होता है तब मिथ्यात्व आ जाता है। श्रमणनिर्ग्रन्थ कांक्षामोहनीय का वेदन करते हैं - इस प्रसंग में कांक्षामोहनीय की अवधारणा विमर्शनीय है। प्रस्तुत तेरह 'अंतरों' में तत्त्वश्रद्धा का प्रश्न नहीं है। यह विभिन्न विचारों के प्रति होने वाली आकांक्षा है। आचार्य भिक्षु के अनुसार तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों में विपरीत श्रन्द्रा करने से मिथ्यात्व आ जाता है, किंतु अन्य विषयों में विपरीत श्रद्धा करने से असत्य का दोष लगता है, पर सम्यक्त्व का नाश नहीं होता है।'
1. सूयगडो 2, पृ. 304 2. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 1/170 गोयमा ! तेहिं तेहिं नाणंतरेहिं, दसणंतरेहिं, चरित्तंतरेहि लिंगंतरेहिं
पवयणंतरेहिं पावयणंतरेहिं कप्पंतरेहिं मग्गंतरेहिं मतंतरेहिं भंगंतरेहिं णयंतरेहिं नियमंतरेहिं पमाणंतरेहिं संकिता कंखिता, वितिकिच्छिता भेदसमावन्ना कलुससमावन्ना एवं खलु समणा निग्गंथा कंखामोहणिज्ज
कम्मं वेदति। 3. भगवई (खण्ड -1) पृ. 89
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