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जैन आगम में दर्शन
अवक्तव्यवाद का प्रयोग करे।' चूर्णिकार ने इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है- यदि छोटे और बड़े-दोनों प्रकार के जीवों के वध में कर्मबंध एक जैसा बतलाया जाए तो बड़े जीवों की हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है। यदि भिन्न प्रकार का बतलाया जाए तो छोटे जीवों की हिंसा करने में उन्मुक्तता का समर्थन होता है। इसलिए इस विषय में समान या असमान कर्मबंध कहना धर्मसंकट है। प्रस्तुत प्रसंग में अहिंसा की समीक्षा करने वाले को अवक्तव्य का प्रयोग करना चाहिए। हर प्रश्न का समाधान भाषा के द्वारा नहीं दिया जा सकता । आचार-मीमांसा के ऐसे प्रश्नों का समाधान भाषागम्य नहीं है। चूर्णिकार इस अभिमत के संपोषक हैं। कर्मबंध : अध्यवसाय तीव्रता-मंदता
सूत्रकृतांग के टीकाकार प्रस्तुत प्रश्न का समाधान वधक के तीव्र एवं मन्द अध्यवसाय के आधार पर देते हैं। सूत्रकृतांग के टीकाकार का अभिमत है कि वध्यप्राणी के आधार पर यदि कर्मबंध होता है तब तो छोटे प्राणी के वध में थोड़ा कर्मबंध और बड़े प्राणी के वध में ज्यादा कर्मबंध होगा। किंतु ऐसा मानना उचित नहीं है। कर्मबंध का सम्बंध वध्यप्राणी से ही नहीं है उसका सम्बन्ध वध करने वाले के अध्यवसाय से भी है। इस आधार पर यदि कोई प्राणी तीव्र अध्यवसायों से छोटे प्राणी का भी वध करता है तो वह महान् कर्मों का बन्ध करता है और यदि मंद अध्यवसाय से अकाम रहता हुआ बड़े प्राणी का भी वध करता है तो उसके अल्पकर्मों का बन्ध होता है। वध्य के छोटे या बड़े के आधार पर ही कर्म का बंध नहीं होता, किंतु कर्मबंध में वधक का तीव्र या मन्द अध्यवसाय हेतु बनता है। जानते हुए या अनजान में विपुलशक्ति या अल्पशक्ति के साथ जो वध किया जाता है-ये भी कर्मबंध में कारणभूत बनते हैं। इसलिए कर्मबंध की विचारणा में वध्य और वधक दोनों पर विचार करना अपेक्षित है।'
एक तर्क है कि जीव सब समान हैं। छोटे-बड़े सबमें आत्मप्रदेशों की समानता है। इसलिए उनके वध में समान कर्मबन्ध होना चाहिए। वृत्तिकार के अनुसार यह अभिमत युक्तिसंगत नहीं है। आत्मा अमर है। वह कभी नहीं मरती। उसकी हिंसा नहीं की जा सकती। हिंसा का जहां कथन होता है वहां प्राणियों की इन्द्रियों का हनन, श्वासोच्छ्वास का हनन विवक्षित होता है। इसलिए कर्मबन्ध में अध्यवसाय ही मुख्यकारण है। तीव्र अध्यवसाय एवं मन्द अध्यवसाय में कृत हिंसा से कर्मबंध एक जैसा नहीं होगा। उसमें आनुपातिक अन्तर अवश्य रहता है।
व्यवहार में भी हम देखते हैं कि डॉक्टर किसी रोगी का ऑपरेशन करता है, उसकी भावना रोगी को रोगमुक्त करने की है। रोगी शल्यक्रिया के समय कष्ट का अनुभव करता या अकस्मात् रोगी का प्राणान्त भी हो जाता है। इसमें डॉक्टर प्राण के व्यपरोपण या कष्ट प्रदान
1. सूत्रकृतांगचूर्णि, पृष्ठ 405 2. सूयगडो 2 2/6-7 का टिप्पण 3. वही, पृ. 304
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