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________________ कर्ममीमांसा 209 का ग्रहण जीव नहीं कर सकता है। जीव के द्वारा वे ही कर्म-पुद्गल गृहीत होते हैं जो कर्म पुद्गल उसके आत्म प्रदेशों पर अवस्थित हैं अर्थात् जिन आकाश प्रदेशों में जीव के आत्म प्रदेश अवगाहित हैं उन्हीं आकाश प्रदेशों पर अवगाहित कर्म परमाणुओं का ही जीव ग्रहण कर सकता है। अनन्त एवं परम्पर आकाशप्रदेशों पर अवस्थित का वह ग्रहण नहीं कर सकता।' कार्मण वर्गणा सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है, इस हेतु से जहां भी आत्म-प्रदेश अवगाहित हैं वहां सर्वत्र कर्म-परमाणु उपस्थित हैं। जीव सभी आत्म प्रदेशों पर स्थित कर्म परमाणुओं का ग्रहण करे ही यह आवश्यक नहीं है वह कभी एक, दो या अनेक आत्म प्रदेशों पर स्थित कर्म परमाणुओं का भी ग्रहण करता है। कभी सभी आत्म-प्रदेशों पर स्थित कर्म-परमाणुओं का ग्रहण करता है। किन्तु उन कर्म-पुद्गलों का ग्रहण सभी आत्म-प्रदेशों के द्वारा ही होगा।' ऐसा नहीं होता है कि जिन आत्म प्रदेशों पर स्थित कर्म पुद्गल को जीव ग्रहण करता है वे ही आत्म प्रदेश उनको ग्रहण करते हैं। कर्म ग्रहणकाल में सभी आत्म प्रदेशों की सहभागिता होती है। कर्म प्रकृति में भी यह तथ्य प्रतिपादित हुआ है। जीव का स्वभाव मानकर भी इसकी व्याख्या भगवती वृत्तिकार ने की है। एक काल में जितने कर्म पुद्गलों का ग्रहण करना है उनका एक साथ ही जीव ग्रहण करता है। भगवती में कर्म ग्रहण प्रक्रिया में 'सव्वेणं सव्वे' का सिद्धान्त प्रतिपादित है अर्थात् कम ग्रहण काल में सारे आत्म प्रदेश एक साथ उस काल में गृहीत होने वाले सारे पुद्गलों को एक साथ ग्रहण करते हैं। आगे पीछे उनका ग्रहण नहीं होता है। कर्मबंध की समानता या विषमता संसार में शरीर की अपेक्षा से छोटे और बड़े दोनों ही प्रकार के प्राणी हैं। कुंथु आदि बहुत छोटे शरीर और हाथी आदि बहुत बड़े शरीर वाले प्राणी हैं। इस संदर्भ में यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इन छोटे और बड़े जीवों की हिंसा में कर्मबंध समान होगा या भिन्न-भिन्न प्रकार का होगा।' आगम के व्याख्याकारों ने इस प्रश्न को विभिन्न प्रकार से समाहित करने का प्रयत्न किया है। सूत्रकृतांगचूर्णि में निर्देश है कि अहिंसा की समीक्षा करने वाले प्रस्तुत प्रसंग में 1. अंगसुत्ताणि ? (भगवई) 6/186 आयसरीररवेनोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति, नो अणंतरखेत्तोगाढे पोग्गले आहारेंति, नो परंपरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेति। 2. वही 1/11 .........सब्वेणं सव्वे कडे। 3. कर्मप्रकृति 21, एगमवि गहणदव्वं, सव्वप्पणयाए जीवदेसम्मि। सव्वप्पणया सव्वत्थ वावि सव्वे गहणखंधे।। भगवती वृत्ति ।/119 जीवस्वाभाव्यात् सर्वस्वप्रदेशावगाढतदेकसमयबन्धनीयकर्मपुद्गलबन्धने सर्वजीवप्रदेशानां व्यापार इत्यत उच्यते-सर्वात्मना। 5. वही, 1/।। 9--सर्वं तदेककालकरणीयं कांक्षामोहनीयं कर्म। 6. सूयगडो 2/5/6 जे केई खुड्डुगा पाणा अदुवा संति महालया। सरिसं तेहिं वेरं ति असरिसं ति य णो वए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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