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________________ 208 जैन आगम में दर्शन भी उल्लेख है। विपाक, वेदना एवं निर्जरा की मध्यवर्ती अवस्था है जिसका समावेश वेदना में हो सकता है। चलित-अचलित कर्म कर्म की बन्ध, उदीरणा, वेदना, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्ति, निकाचना एवं निर्जरा रूप अवस्थाओं के विशेष विमर्श के समय भगवती सूत्र में चलित एवं अचलित कर्म की चर्चा हुई है। कर्मों की इन अवस्थाओं में बन्ध, उदीरणा आदि अवस्थाओं में कर्म-पुद्गल की कैसी अवस्था रहती है ? वेचलित होते हैं अथवा अचलित होते हैं ? इसका सापेक्ष वर्णन भगवती में हुआ है। जीव अपनी प्रवृत्ति द्वारा कर्म-परमाणुओं को आकर्षित करता है। वे आकर्षित कर्म पुद्गल स्कन्ध आत्मा से संयुक्त हो जाते हैं, स्थित हो जाते हैं वे अचलित कर्म कहलाते हैं और जो उस स्थिरावस्था को छोड़कर पुनः प्रकम्पित होते हैं, उनको चलित कर्म कहा गया है।' कर्म की अवस्थाओं के संदर्भ में चलित और अचलित शब्द का प्रयोग सापेक्ष है। बंध, उदय, वेदन, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्तन और निकाचन जीव प्रदेशों से अचलित कर्म का होता है तथा निर्जरा जीव प्रदेशों से चलित कर्म की होती है।' जीव जब कर्म पुद्गलों का ग्रहण कर रहा है प्रस्तुत विवेचन के अनुसार वह कर्म की बंध अवस्था नहीं है किंतु गृहीत होने के पश्चात् जब वे जीव-प्रदेशों में स्थित होते हैं तब ही उसे बंध अवस्था कहा जाता है। सामान्यत: बन्ध, उदय, वेदन, अपवर्तन आदि के समय कर्म-पुद्गलों के चलित होने की अवस्था का भान होता है किंतु भगवती सूत्रकार इसे अचलित कर्म कह रहे हैं। इसका तात्पर्य यह प्रतीत हो रहा है कि कर्म-पुद्गलों में प्रकम्पन होने का अर्थ यहां चलित नहीं है। चलित उसी अवस्था को कहा जाएगा जिसमें कर्म-पुद्गलों का आत्मा से विसम्बन्ध हो जाएगा। जब तक कर्म-पुद्गल जीव प्रदेशों से संयुक्त हैं भले उनमें प्रकम्पन हो रहा हो वे अचलित कर्म ही कहलाएंगे। स्वप्रदेशावगाही पुद्गलों का ग्रहण जैन परम्परा के अनुसार कर्म चतु:स्पर्शी पुद्गल होते हैं। जो कर्मवर्गणा के रूप में सम्पूर्ण लोक में फैले हुए हैं। जीव अपनी शुभाशुभ प्रवृत्ति से उनको आकृष्ट करके कर्मरूप में परिणत करता है। कर्म वर्गणा के परमाणु सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं किंतु उन सब कर्म परमाणुओं 1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 1/28-31 2. भगवई (खण्ड-1) पृ. 356 (भगवती वृत्ति 1/28 - 32) जीवप्रदेशेभ्यश्चलितं-तेष्वनवस्थानशीलं तदितरत्त्वचलितम् 3. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 1/31 संग्रहणी गाथा-बंधोदयवेदोयट्टसंकमे तह निहत्तणनिकाए। अचलिकम्मं तु भवे, चलियं जीवाउ निजरए।। 4. गाथा 16/16 कम्मगसरीरे चउफासे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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