SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 114 जैन आगम में दर्शन परमाणु की सप्रदेशता-अप्रदेशता पुद्गल द्रव्य की सूक्ष्मतम इकाई को परमाणु कहते हैं। परमाणु से और कोई छोटा भेद पुद्गल का नहीं हो सकता। परमाणु अभेद्य है।' परमाणु अपनी द्रव्यात्मक अवस्था में अकेला होता है। अतः उस अवस्था में वह अप्रदेशी है। परमाणु का अर्ध, मध्य भाग भी नहीं होता।' ठाणं में भी परमाणु को अभेद्य, अदाह्य, अग्राह्य, अनर्ध, अमध्य, अप्रदेश और अविभाज्य कहा है। भगवती में परमाणु के चार प्रकार बतलाए हैं - द्रव्य परमाणु, क्षेत्र परमाणु, काल परमाणु एवं भाव परमाणु । वहां द्रव्य परमाणु को अछेद्य, अभेद्य, अदाह्य, अग्राह्य एवं क्षेत्र परमाणु को अनर्ध, अमध्य, अप्रदेश एवं अविभागी कहा है। भगवती में द्रव्य और क्षेत्र परमाणु का जो स्वरूप बताया है स्थानांग में यह संयुक्त रूप से, द्रव्य और क्षेत्र का भेद किए बिना परमाणु के स्वरूप का व्याख्यान है। भगवती में ही अन्यत्र परमाणु को अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश कहा है। परमाणु अप्रदेश है- यह वक्तव्य द्रव्य एवं क्षेत्र परमाणु की अपेक्षा से है। काल एवं भाव की अपेक्षा परमाणु सप्रदेशी एवं अप्रदेशी दोनों हो सकता है। द्रव्य की अपेक्षा परमाणु निरवयव है अत: वह अप्रदेशी है तथा क्षेत्र की अपेक्षा वह एक आकाश प्रदेशावगाही ही होता है अत: क्षेत्र की अपेक्षा भी अप्रदेशी है। काल की अपेक्षा जो परमाणु एकसमय स्थिति वाला है अर्थात् एकसमय के बाद स्कन्ध में परिवर्तित हो जाएगा वह अप्रदेशी एवं एक से अधिक समय स्थिति तक परमाणु रूप में ही रहेगा वह सप्रदेशी है। परमाणु में वर्ण, गन्ध, रस, एवं स्पर्श की भी विभिन्न मात्रा होती है। एक परमाणु अनन्त गुण काला हो सकता है दूसरा परमाणु एक गुण काला हो सकता है , यही नियम गन्ध आदि के सन्दर्भ में है जब परमाणु एक गुण वर्ण रस आदि वाला होगा तब अप्रदेशी एक से अधिक गुण या मात्रा वाला होगा तो वह सप्रदेशी कहा जाएगा।' । भगवती में भाव परमाणुओं को वर्णवान्, गंधवान्, रसवान् एवं स्पर्शवान् कहा है। इस अपेक्षा से भी उन्हें सप्रदेशी कहा जा सकता है। सिद्धसेनगणी ने भी भाव परमाणु को 1. ठाणं 3/329 2. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 5/160 3. ठाणं, 3/329-335 4. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 20/37-38 5. वही, 5/160 6. प्रज्ञापनावृत्ति, पत्र 202 - 3, परमाणुर्हि अप्रदेशो गीयते, द्रव्यरूपतया सांशो न भवतीति...........कालभावाभ्यां सप्रदेशत्वेपि न कश्चिद् दोषः। भगवतीवृत्ति, पत्र 241, यो द्रव्यतोऽप्रदेश:-परमाणु स च क्षेत्रतो नियमादप्रदेशो, यस्मादसौ क्षेत्रस्यैकत्रैव प्रदेशेऽवगाहते प्रदेशद्वयाद्यवगाहे तु तस्याप्रदेशत्वमेव न स्यात्, कालतस्तु यद्यसावेकसमयस्थितिकस्तदाऽप्रदेशोऽनेकसमयस्थितिकस्तु सप्रदेश इति, भावत: पुनर्योकगुणकालकादिस्त दाऽप्रदेशोऽनेक गुणकालकादिस्तु सप्रदेश इति । 8. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 20/41 1. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy