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तत्त्वमीमांसा
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सावयव और द्रव्य परमाणु को निरवयव कहा है।' अनेकान्त दृष्टि से विचार करने पर परमाणु की सप्रदेशता-अप्रदेशता सिद्ध हो जाती है। स्कन्ध की सप्रदेशता-अप्रदेशता
परमाणु की तरह ही अपेक्षा भेद से स्कन्ध भी सप्रदेशी एवं अप्रदेशी उभय रूप हो सकता है। जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया था कि द्रव्य की अपेक्षा परमाणु अप्रदेशी ही होता है। स्कन्ध के सम्बन्ध में इससे विपरीत होगा, द्रव्य की अपेक्षा स्कन्ध सप्रदेशी ही होगा। क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा स्कन्ध सप्रदेशी एवं अप्रदेशी उभय रूप है। द्रव्य की अपेक्षा द्विप्रदेशो आदि स्कन्ध सप्रदेश ही होते हैं। जो स्कन्ध आकाश के एक प्रदेश पर अवगाढ़ होता है उसे क्षेत्र की अपेक्षा अप्रदेशी एवं एकाधिक प्रदेशावगाही को सप्रदेशी कहा जाता है। एक समय स्थिति वाला स्कन्ध काल की अपेक्षा अप्रदेशी एवं एकाधिक समय स्थिति वाला सप्रदेशी कहलाता है। भाव की अपेक्षा एकगुण (मात्रा) वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श वाला परमाणु अप्रदेशी एवं अधिक गुण वाला सप्रदेशी कहा जाता है।' परमाणु-पुद्गल की शाश्वतता-अशाश्वतता
जैन दर्शन के अनुसार अस्तित्व विरोधी धर्मों का समवाय है। प्रत्येक वस्तु में एक साथ, एक ही काल में विरोधी धर्मो का सहावस्थान है। परमाणु-पुद्गल में भी यही नियम घटित होता है। वह शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है।' द्रव्यार्थ की अपेक्षा वह शाश्वत है एवं वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श पर्याय की अपेक्षा अशाश्वत है।' अपेक्षा भेद से वस्तु में स्थित विरोधी धर्मों के सहावस्थान की सम्यक् व्याख्या की जा सकती है। पुद्गल के परिवर्तन का नियम
स्कन्ध एवं परमाणु के भेद से पुद्गल द्विधा विभक्त है। स्कन्ध का परमाणु के रूप में एवं परमाणु का स्कन्ध के रूप में परिवर्तन होता रहा है। भगवती में एक प्रश्न उपस्थित किया गया कि परमाणु पुद्गल काल की दृष्टि से कितने समय तक परमाणु रूप में रह सकता है? इस जिज्ञासा को समाहित करते हुए कहा गया कि कम-से कम एक समय एवं उत्कर्षतः असंख्येय काल तक वह एक स्थिति में रह सकता है तथा परमाणु के सम्बन्ध में पूछे गए प्रश्न के उत्तर में समाधानकार ने स्कन्ध की काल स्थिति का भी उत्तर दे दिया । अर्थात् परमाणु एवं 1. तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी वृत्ति, 5/1, पृ. 31 8 - 3 19, ..............ननु प्रसिद्धमेवेदमेकरसगन्धवर्णो
द्विस्पर्शश्चाणुर्भवति, भावावयवै:सावयवो द्रव्यावयवैर्निरवयव इति। 2. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 5/161-164 3. (क) वही, 5/205
(ख) भगवती वृत्ति, पत्र 241 अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 14/49.परमाणुपोग्गलेणं भंते! किं सासए? असासए ? गोयमा! सिय सासए,
सिय असासर। 5. वही, 14/50
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