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आत्ममीमांसा
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जो नहीं जाना जा सकता, वह निरावरण चेतना से जाना जा सकता है, इस स्थापना में कोई कठिनाई नहीं है। कुछ प्राचीन ग्रन्थों में पेड़-पौधों को सजीव बतलाया गया है, किंतु वे श्वास लेते हैं, किस द्रव्य का श्वास लेते हैं, कितनी दिशाओं से श्वास लेते हैं आदि-आदि विषय जैन आगमों के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं हैं।''
पृथ्वीकाय आदि के जीव किसका उच्छवास और नि:श्वास करते हैं, इसका समाधान देते हुए कहा गया ये जीव द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तप्रदेशी, क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्येय प्रदेशावगाढ, काल की अपेक्षा से किसी भी स्थितिवाले और भाव की अपेक्षा से वर्ण-गंध रस तथा स्पर्शयुक्त पुद्गल द्रव्यों का उच्छवास और नि:श्वास करते हैं।' पृथ्वीकाय आदि केजीव यदि कोई बाधा उपस्थित न हो तो छहों दिशाओं में और यदि व्याघात (बाधा) हो तो कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से आन, अपान तथा उच्छवास और नि:श्वास करते हैं।' त्रस जीव त्रसनाड़ी के अन्तर्गत होते हैं, इसलिए वे छहों दिशाओं में श्वासोच्छ्वास लेते हैं । ' एकेन्द्रिय जीव लोकान्त के कोणों में भी होते हैं, इसलिए वे तीन, चार अथवा पांच दिशाओं में भी श्वास लेते हैं।'
"जीवन का मुख्य लक्षण है-श्वास । जो श्वास लेता है, उसमें जीवन है और जो श्वास नहीं लेता है, उसमें जीवन नहीं है- यह एक पहचान बनी हुई है। एकेन्द्रिय जीव श्वास लेते हैं -- यह विषय ज्ञात नहीं है । भगवान् महावीर ने कहा-वे श्वास लेते हैं। वनस्पति का जीवत्व प्राचीन साहित्य में भी यत्र-तत्र चर्चित है किंतु पृथ्वी, पानी, अग्नि
और वायु का जीवत्व कहीं भी सम्मत नहीं है। विज्ञान की दृष्टि से भी वनस्पति का जीवत्व प्रमाणित है। पृथ्वी आदि के जीवत्व के विषय में वह मौन है। वनस्पति के जीव श्वास लेते हैं। इसकी स्वीकृति वैज्ञानिक जगत् में भी है। शेष पृथ्वी आदि का जीवत्व कहीं भी सम्मत नहीं है, फिर श्वास लेने का प्रश्न ही नहीं उठता। भगवान महावीर ने एकेन्द्रिय जीवों द्वारा श्वास लेने के सिद्धान्त की स्थापना ही नहीं की है, किंतु उसका पूरा विवरण दिया है। श्वास के पुद्गलों की एक स्वतन्त्र वर्गणा है। उसके पुद्गल ही श्वास के काम में आते हैं।"
1. भगवई (खण्ड-1) (आमुख दूसरा शतक) पृ. 197 (अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 2/2, जे इमे भंते ! बेइंदिया
तेइंदिया चउरिंदिया पंचिंदिया जीवा एएसिणं आणामंवा पाणामंवा उस्सासंवा निस्सासंवा जाणामोपासामो। जे इमे पुढ विकाइया जाव वणप्फइकाइया-एगिंदिया जीवा, एएसि णं आणामं वा पाणामं वा
उस्सासंवा नस्सासंवा न याणामोन पासामो। एएणं भंते ! जीवा आणमंति वा ? पाणमंति वा ? उससंति वा?
नीससंति वा? हंता गोयमा ! एए विण जीवा आणमंति वा, पाणमंति वा, उससंति वा, नीससंति वा।) 2. वही, 2/3 3. वही, 2/5 4. भगवतीवृत्ति, 2/7, शेषा नारकादिवसा: षड् दिशमानमन्ति, तेषां हि वसनाइ यन्तर्भूतत्वात्
षड्दिशमुच्छ्वासादिपुद्गलग्रहोस्त्येवेति । 5. भगवतीवृत्ति, 2/7, यतस्तेषां लोकान्तवृत्तावलोकेन त्र्यादिदिक्षुच्छ्वासादिपुद्गलानां व्याघात: संभवतीति। 6. भगवई, (खण्ड ।) पृ. 201
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