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आत्ममीमांसा
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वनस्पतिकाय के शस्त्र
जिस किसी भी वस्तु से वनस्पति को क्षत-विक्षत किया जाता है वे सब वनस्पतिकाय के शस्त्र हो जाते हैं। आचारांग नियुक्ति में वनस्पतिकाय के शस्त्र निम्नलिखित प्रतिपादित हुए हैं
1. कैंची, कुठारी, हंसिया, छोटी हंसिया, कुदाली वसूला और फरसा। 2. हाथ, पैर, मुंह आदि। 3. स्वकायशस्त्र-लाठी आदि। 4. परकायशस्त्र-पाषाण, अग्नि आदि। 5. तदुभयशस्त्र-कुठार आदि । 6. भावशस्त्र-असंयम ।।
संसार में सबसे अधिक जीव वनस्पतिकाय के ही है। वह जीवों का अक्षय भण्डार है। जीव अनन्त काल तक निरन्तर वनस्पतिकाय में रहते हैं।
वनस्पति को दीर्घलोक भी कहा जाता है। वनस्पति जगत् को दीर्घलोक कहने के तीन कारण हैं
1. शरीर की दीर्घता। 2. द्रव्य परिमाण की अनन्तता। 3. कायस्थिति की दीर्घता । उसी काय में बार-बार जन्म-मरण करना। अन्य सब
काय के जीव वनस्पतिकाय की अपेक्षा से लघु शरीर होते हैं। जीवों की संख्या
तथा कायस्थिति भी वनस्पति की अपेक्षा उनमें कम होती है। पांचस्थावर परिणत एवं अपरिणत (सजीवएवं निर्जीव)
स्थानांग के अनुसार पांचों स्थावर जीवनिकाय परिणत और अपरिणत-दोनों प्रकार के होते हैं। इसका अर्थ है कि पृथ्वी आदि सजीव एवं निर्जीव दोनों प्रकार के होते हैं। वायु : सचित्त एवं अचित्त
स्थानांग में ही अचित्त वायु पांच प्रकार की प्रतिपादित है -
1. आचारांगनियुक्ति, गा. 149-150, कप्पणिकुहाणिअसियगदत्तियकुद्दालवासिपरसू अ।
सत्थं वणस्सईए हत्था पाया मुहं अग्गी ।। किंची सकायसत्थं किंची परकाय तदुभयं किंची।
एयं तु दव्वसत्थं भावे य असंजमो सत्थं ।। 2. आचारांगभाष्यम्, पृ. 54, दीर्घलोक:-वनस्पतिः। 3. ठाणं, 2/133-137 4. वही, 5/18 3, पंचविधा अचित्ता वाउकाइया पण्णत्ता, तं जहा-अकंते धंते पीलिए सरीराणुगते संमुच्छिमे।
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