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आक्रान्त - पैरों को पीट-पीट कर चलने से उत्पन्न वायु । ध्मात - धौंकनी आदि से उत्पन्न वायु ।
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3. पीड़ित - गीले कपड़ों के निचोड़ने आदि से उत्पन्न वायु । शरीरानुगत- डकार, उच्छ्वास आदि ।
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5. सम्मूर्च्छिम - पंखा झलने आदि से उत्पन्न वायु ।
यह पांच प्रकार की वायु उत्पत्तिकाल में अचेतन होती है और परिणामान्तर होने पर सचेतन भी हो सकती है।' स्थानांग के इस उल्लेख के अनुसार पांच स्थावरकाय निर्जीव भी हो सकते हैं, इस वक्तव्य के आधार पर विद्युत, H2O से निर्मित जल आदि की सजीवतानिर्जीवता पर विमर्श का अवकाश है। समूर्च्छिम का अर्थ टीकाकार ने पंखे आदि झलने से उत्पन्न वायु किया है और उसको अचित्त माना है, इन संदर्भों में प्रस्तुत जीवनिकाय की सचेतनताअचेतनता पर एक नई दृष्टि प्राप्त होती है।
जल: सचित्त एवं अचित्त
भगवती सूत्र में 'महातपोपतीर प्रभव' नामक निर्झर के वर्णन के प्रसंग में उल्लेख प्राप्त होता है कि वहां अनेक उष्णयोनिक जीव और पुद्गल उदक रूप में उत्पन्न और विनष्ट होते हैं, च्युत होते हैं और उत्पन्न होते हैं ।' प्रस्तुत वक्तव्य से स्पष्ट होता है कि जल सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार का होता है । यदि पुद्गल का पानी के रूप में परिणमन नहीं होता तो "जीवा य पोग्गलाय उदगत्ताए वक्कमंति" पाठ में केवल 'जीवा' शब्द ही प्रयुक्त होता 'पोग्गला' पाठ नहीं होता। ‘जीवा' और 'पोग्गला' इन दोनों शब्दों का प्रयोग उदग परिणति के संदर्भ में हुआ है । सामान्यत: प्राकृतिक पानी शीतल होता है। 'महातपोपतीरप्रभव' निर्झर के पानी को उष्ण कहा गया है। सामान्यतः गरम जल अचित्त होता है किंतु प्रस्तुत वर्णन से ज्ञात होता है कि अप्कायिक जीव उष्णयोनिक भी हो सकते हैं । उष्णयोनिक जीव गरम वातावरण में उत्पन्न एवं वृद्धि को प्राप्त करते हैं । वैज्ञानिक मान्यता भी इस तथ्य का समर्थन कर रही है ।
जैन आगम में दर्शन
भगवतीभाष्य में इस प्रसंग में लुईस टामस के वक्तव्य को प्रस्तुत किया गया है जिसका उल्लेख प्रस्तुत प्रसंग में करना समीचीन होगा।
लुईस टामस ने लिखा है - " एक जीवाणु प्रजाति है जिसे 1982 तक पृथिवी के धरातल पर देखा ही नहीं गया। इन जीवों को स्वप्न में भी कभी नहीं देखा गया। ये प्रकृति के जिन
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स्थानांगवृत्ति पत्र - 335, आक्रान्ते पादादिना भूतलादौ यो भवति स आक्रान्तो यस्तु ध्माते दृत्यादौ स ध्मातः जलार्द्रवस्त्रे निष्पीड्यमाने पीडित: उद्गारोच्छ्वासादि: शरीरानुगतः व्यजनादिजन्य: सम्मूर्च्छिमः, एते च पूर्वमचेतनास्ततः सचेतना अपि भवन्ति ।
2. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 2 / 113, तत्थ णं बहवे उसिणजोणिया जीवाय पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमंति विउक्कमंति चयंति उववज्र्ज्जति ।
3. अंगसुत्ताणि, 2 / 113, तव्वइरित्ते वि य णं सया समियं उसिणे - उसिणे आउयाए अभिनिस्सवइ ।
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