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आत्ममीमांसा
नियमों को हम जानते हैं, उनके जीते-जागते उल्लंघन हैं। चीजें जो एक प्रकार से सीधे नरक
आई हों या हम जो नरक के बारे में सोचते हैं। पृथ्वी के अन्दर गरम क्षेत्र में जो रहने लायक न हो। इस प्रकार के क्षेत्रों में हाल में अनुसंधानी पनडुब्बियों की वैज्ञानिक निगाह पड़ी है। यह पनडुब्बियां समुद्र के तल में 25000 मीटर या इससे ज्यादा तक जा सकती हैं। ये तल के गड्ढों में किनारे तक पहुंच सकती हैं। जहां खुली नालियां पृथिवी की पपड़ी में चिमनियों से अधिक गरम समुद्री जल छोड़ती हैं। इन्हें समुद्री वैज्ञानिक “ब्लेक स्मोकर्स” कहते हैं। यह केवल गरम पानी या भाप नहीं या दबाव के नीचे भी भाप नहीं, जैसी कि प्रयोगशाला के (ऑटो
ब) में होती है, जिस पर हम दशकों से सारे जीवाणु नष्ट करने के लिए निर्भर करते आए हैं । यह बहुत अधिक गरम पानी अत्यधिक दबाव में होता है। जिसका तापमान 300 अंश सेण्टीग्रेट से भी ज्यादा होता है। इतने ताप पर अब तक ज्ञात जीव रह ही नहीं सकता। प्रोटीन और डी. एन. ए. टूट जाएंगे। एन्जाइम पिघल जाएंगे। कोई भी जिन्दा चीज क्षणभर में मर जाएगी। हम अब तक स्वीकार करते आए हैं कि शुक्र ग्रह पर इतना ही तापमान होने के कारण वहां जीवन नहीं हो सकता। इसी आधार पर हम कह सकते हैं कि 4-5 अरब वर्ष पूर्व इस ग्रह के आरम्भिक समय में जीवन नहीं रहा होगा। बी. जे. ए. बैरोज तथा जे. डब्ल्यू डेमिंग ने हाल गहरे समुद्रों का नालियों से आए जीवाणुओं की जीवन्त बस्तियों की खोज की है। यही नहीं जब इन जीवाणुओं को पानी से ऊपर लाया गया, उन्हें टाइटेनियम सूइयों में रखा गया तथा 250 अंश सेण्टीग्रेट तक गरम ताप वाले कक्षों में मुहरबन्द किया गया तो ये जीवित ही नहीं रहे बल्कि बड़े उत्साह से पुनरुत्पादन किया। इनकी संख्या बढ़ती गई उन्हें केवल उबलते पानी में ही डालकर मारा जा सकता है। फिर भी यह साधारण जीवाणु जैसे लगते हैं । इलेक्ट्रोनिक माइक्रोस्कोप के नीचे इनकी संरचना वैसी ही है - कोशिका - दीवारें, राइबोसोम तथा बाकी सब कुछ जैसा कि अब कहा जा रहा है । यदि ये मूल रूप से पुरातत्त्व काल के जीवाणु हैं हमारे सबके पुरखे, तो फिर उन्होंने या उनकी पीढ़ियों ने ठण्डा होकर जीना कैसे सीखा ? मैं इससे ज्यादा आश्चर्यजनक चाल की कल्पना ही नहीं कर सकता ।" "
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स्थानांग में परिणत एवं अपरिणत के रूप में स्थावरकाय की चर्चा तथा भगवती में पुद्गल की भी पानी के रूप में परिणति के उल्लेख आधुनिक विचारकों को नवीन दृष्टि प्रदान करने वाले हैं ।
न्याय वैशेषिक दर्शन में पृथ्वी, पानी, अग्नि एवं वायु को द्रव्य माना गया है। यद्यपि इनके जीवत्व का निर्देश वहां पर नहीं है किंतु इनको शरीर, इन्द्रिय एवं विषय के भेद से तीन प्रकार का कहा है। शरीर जीव के होता है। तर्कसंग्रह में कहा है-जल का शरीर वरुणलोक में
भगवई, खण्ड 1, पृ. 280
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