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जैन आगम में दर्शन
में अनन्त ही होते हैं। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव समूचे लोक में व्याप्त हैं तथा बादर जीव लोक के एक देश में व्याप्त हैं।'' वनस्पतिकीसचेतनता
वनस्पति जीव है। जन्म, वृद्धत्व, जीवन, मृत्यु, व्रणरोहण, आहार, दोहद, रोगचिकित्सा आदि वृक्ष की सचेतनता को प्रकट करते हैं।' आचारांग में वनस्पति की मनुष्य के साथ तुलना की गई है, जो ज्ञातव्य है।
__आचारांग में मनुष्य के साथ वनस्पति की तुलना करते हुए कहा गया- “यह मनुष्य शरीर भी जन्मता है, यह वनस्पति भी जन्मती है। यह मनुष्य शरीर भी बढ़ता है, यह वनस्पति भी बढ़ती है। यह मनुष्य शरीर भी चैतन्ययुक्त है, यह वनस्पति भी चैतन्ययुक्त है। यह मनुष्य शरीर भी छिन्न होने पर म्लान होता है, यह वनस्पति भी छिन्न होने पर म्लान होती है। यह मनुष्य शरीर भी आहार करता है, यह वनस्पति भी आहार करती है। यह मनुष्य शरीर भी अनित्य है, यह वनस्पति भी अनित्य है। यह मनुष्य शरीर भी अशाश्वत है, यह वनस्पति भी अशाश्वत है। यह मनुष्य शरीर भी उपचित और अपचित होता है, यह वनस्पति भी उपचित और अपचित होती है। यह मनुष्य शरीर भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होता है, यह वनस्पति भी विविध अवस्थाओं को प्रास होती है।''
. स्थावरकायिक जीवों में वनस्पतिकायिक जीवों की चेतना अत्यधिक स्पष्ट होती है। पृथ्वी आदि में वनस्पति की तरह चैतन्य स्पष्ट नहीं होता। इसलिए मानव शरीर के साथ उनकी तुलना नहीं की गई है। मनुष्य शरीर के साथ वनस्पति की तुलना सर्वांगीण रूप से होती है। जन्म, वृद्धि, भोजन, चयापचय, मरण, रोग, बाल आदि अवस्था और चैतन्य आदिका साक्षात् दृश्यमान लक्षण दोनों में प्राप्त होते हैं।
आचारांगचूर्णि में स्वप्न, दोहद, रोग आदि अन्य लक्षणों का भी वनस्पति में उल्लेख किया है। दोहद के विषय में यह उल्लेख मिलता है कि वृक्षों में इच्छा उत्पन्न करने अथवा उनमें उत्पन्न इच्छा को सिंचन देने अथवा उनके दोहद की पूर्ति करने से फूल, फल आदि का उपचय होता है। आचारांग वृत्ति में दोहद का तो उल्लेख है किंतु स्वप्न का उल्लेख नहीं है।
I. उत्तरज्झयणाणि, 36/100 2. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1756, जम्म-जरा-जीवण-मरण-रोहणा-हार-दोहला-मयो।
रोग-तिगिच्छाईहियनारिव्व सचेयणा तरवो।। 3. आयारो, 1/113,सेबेमि-इमंपिजाइधम्मयं, एयंपिजाइधम्मयं । इमंपिबुड्डिधम्मयं, एयंपि बुड्डिधम्मयं.......। 4. आचारांगचूर्णि, पृ. 35 5. (क) आचारांग, वृत्ति पत्र 60, दोहदप्रदानेन तत्पूर्त्या वा पुष्पफलादीनामुपचयो जायते। (ख) आप्टे (वी.एस. आप्टे, मुम्बई, 1924) 'दोहद' The desire of plants at budding-time, (as, for
instance, of the Asoka to be kicked by young ladies, of the Bakula to be sprinkled by mouthfuls of liquor etc.)
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