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आत्ममीमांसा
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जरा और शोक
पृथ्वीकायिक जीव शारीरिक वेदना का अनुभव करते हैं, इसलिए उनके जरा होती है। वे मानसिक वेदना का अनुभव नहीं करते, इसलिए उनके शोक नहीं होता है।। पृथ्वीकाय में उन्माद
__ पृथ्वीकाय में यक्षावेशजनित और मोहोदयजनित दोनों प्रकार के उन्माद होते हैं। प्रेत आदि के द्वारा अशुभ पुद्गलों के प्रक्षेपण से होने वाला उन्माद यक्षावेशजनित और मोहकर्म के विपाक से होने वाला उन्माद मोहोदय जनित कहलाता है।'
वर्तमान में भी देखा जाता है कि प्रेत से अभिभूत हीरों के धारण करने वाले व्यक्ति में वैसा उन्माद पैदा होता है। यक्षावेशग्रस्त कुछ भवन भी देखने को मिलते हैं। ' पृथ्वीकाय में ज्ञान
पृथ्वीकायिक जीवों में मति और श्रुत-यह दोनों प्रकार का अव्यक्त बोध होता है। पृथ्वी आदि जीव मिथ्यात्वी होते हैं अत: इनके ज्ञान को अज्ञान कहा जाता है । पृथ्वी आदि जीवों में मनुष्य आदि की भाषा और मनोजनित प्रकम्पनों को पकड़ने की शक्ति भी होती है। यद्यपि उन एकेन्द्रिय आदि जीवों के लिए दूसरों का वचन सुनना असंभव है, फिर भी उनके अक्षरलाभ के अनुरूप क्षयोपशम के कारण कोई अव्यक्त अक्षरलाभ होता है। इसके फलस्वरूप अक्षर सम्बन्धी श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। इस प्रकार उनमें श्रुत अज्ञान स्वीकार किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त उनमें आहार आदि की अभिलाषा पैदा होती है। अभिलाषा का अर्थ है-मांग । जैसे-यदि यह मुझे मिल जाए तो अच्छा हो यह मांग अक्षरात्मक ही होती है। इसलिए उनमें भी कुछ अव्यक्त अक्षरलब्धि अवश्य मानी जा सकती है। मत्त, मूर्छित तथा विष से प्रभावित पुरुष के ज्ञान की तरह एकेन्द्रिय जीवों में जघन्यतम ज्ञान होता है। पृथ्वीकाय में आहार की अभिलाषा
पृथ्वीकायिक जीवों में प्रतिक्षण, निरन्तर आहार की अभिलाषा होती है। वे आहार के पुद्गलों के पहले वाले वर्ण आदि गुणों का विपरिणमन कर, अन्य नए वर्ण आदि गुणों
1. अंगसुत्ताणि भाग-2 (भगवई), 19/30-31,गोयमा ! पुढविकाइयाणं जरा न सोगे । .......पुढविकाइयाणं
सारीरं वेदणं वेदेति, नो माणसं वेदणं वेदेति । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-पुढविकाइयाणं जरा, नो सोगे। 2. वही, 14/16-20 3. संदेश (गुजराती पत्र) 24 जुलाई 1983 पृ. 8 4. नवभारत टाइम-स-वार्षिक अंक-पराविद्या के रहस्य 1976, पृ. 43 ।।
अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 8/107,पुढविक्काइयाणभंते! किंनाणी? किं अण्णाणी?गोयमा !नो नाणी, अण्णाणी जे
अण्णाणी ते नियमा दुअण्णाणी-मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी य । 6. आचारांगभाष्यम्, पृ. 40
5.
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