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जैन आगम में दर्शन
को उत्पन्न कर उन्हें सर्वात्मना आत्मसात् कर लेते हैं।' वृक्ष में सूक्ष्म स्नेहगुण होता है। उसी के आहार से वृक्ष के शरीर का उपचय होता है, किंतु अव्यक्त होने के कारण वह परिलक्षित नहीं होता। वैसे ही पृथ्वी में भी सूक्ष्म स्नेह होता है, किंतु सूक्ष्मता के कारण वह दिखाई नहीं देता। पृथ्वीकाय में क्रोध
पृथ्वीकायिक जीवों में क्रोध आदि भाव भी होते हैं किंतु वे सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रिय-ज्ञानयिों के ज्ञान के विषय नहीं बन सकते । जैसे-क्रोध का उदय होने पर मनुष्य आक्रोश करते हैं, त्रिवली करते हैं या भृकुटि तानते हैं, उस प्रकार पृथ्वीकायिक जीव क्रोध का उदय होने पर उसे प्रदर्शित करने में समर्थ नहीं होते हैं।' पृथ्वीकाय में लेश्या
भगवती सूत्र में पृथ्वीकायिक जीवों के कृष्ण, नील, कापोत एवं तेज-ये चार लेश्याएं बताई गई हैं। इससे ज्ञात होता है कि उनमें मन का विकास नहीं है, फिर भी उनमें भावों का अस्तित्व है। भावों का अस्तित्व होने के कारण उनमें आभामण्डल भी होता है। भावों के आधार पर उनमें लेश्या का परिवर्तन होता रहता है। अध्यवसाय जब अत्यन्त क्लिष्ट बनते हैं तब कृष्ण लेश्या उनमें होती है। भावों की क्लिष्टता जब कम होने लगती है तब लेश्या क्रमश: विशुद्ध होने लगती है। पृथ्वीकाय आदि जीवों में अधिकतम इतनी ही शुद्धि हो सकती है जिससे तेजोलेश्या उनमें हो सकती है। पद्म एवं शुक्ल लेश्या जितनी उनमें विशुद्धि नहीं हो सकती। पृथ्वीकाय में वेदना
भगवान् महावीर ने कहा-पृथ्वीकायिक जीव वेदना का, दु:ख का अनुभव करते हैं। इस संदर्भ में एक प्रश्न सहज ही उठता है कि पृथ्वीकायिक जीव न सुनते हैं, न देखते हैं, न सूंघते हैं और न ही गति करते हैं। हम कैसे विश्वास करें कि उनको वेदना होती है। आचारांग सूत्र में इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए दृष्टान्तों का निरूपण किया है। तीन दृष्टांतों से वेदना निरूपण
__ जैसे कोई पुरुष अन्ध अर्थात् इन्द्रिय-विकल पुरुष का भेदन-छेदन करता है, क्या उसे वेदना का अनुभव नहीं होता? वह इन्द्रिय विकलता के कारण वेदना को व्यक्त करने में
1. प्रज्ञापना, 28/28 - 32 2. निशीथभाष्य, गाथा 4264 3. वही, गाथा 4265, कोहाई परिणामा तहा, एगिदियाण जंतूणं ।
पावल्लं तेसु कज्जेसु, कारेउंजे अपच्चला ।। 4. अंगसुत्ताणि (भगवई) 19/6
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