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________________ आचार मीमांसा 257 4. आदानसमिति-दैनिक व्यवहार में आनेवाले पदार्थों के व्यवहार सम्बन्धी अहिंसा का विवेक। 5. उत्सर्ग समिति-उत्सर्ग सम्बन्धी अहिंसा का विवेक। इन पांच समितियों का पालन करने वाला मुनि जीवाकुल संसार में रहता हुआ भी पापों से लिप्त नहीं होता। जिस प्रकार दृढ़ कवचधारी योद्धा बाणों की वर्षा होने पर भी नहीं बींधा जा सकता, उसी प्रकार समितियों का सम्यक् पालन करने वाला मुनि साधु-जीवन के विविध कार्यों में प्रवर्तमान होता हुआ भी पापों से लिप्त नहीं होता। गुप्ति का अर्थ है-निवर्तन । वे तीन प्रकार की हैं - 1. मनोगुप्ति-असत् चिन्तन से निवर्तन। 2. वचनगुप्ति-असत् वाणी से निवर्तन । 3. कायगुप्ति-असत् प्रवृत्ति से निवर्तन। जिस प्रकार क्षेत्र की रक्षा के लिए बाड़, नगर की रक्षा के लिए खाई या प्राकार होता है, उसी प्रकार श्रामण्य की सुरक्षा के लिए, पाप के निरोध के लिए गुप्ति है। ___ पांच समितियां चारित्र की प्रवृत्ति के लिए हैं और तीन गुप्तियां सब अशुभ विषयों से निवृत्ति के लिए है।' जीवन-यात्रा के लिए प्रवृत्ति अपेक्षित होती है और अशुभ से बचने के लिए निवृत्ति अपेक्षित होती है। समिति एवं गुप्ति की साधना से मुनि के जीवन में संतुलन बना रहता है। उसका जीवन निर्वाह सम्यक् रूप से होता रहता है। सामायिक, छेदोपस्थापनीय आदि चारित्र हैं। उनका अभ्यासात्मक स्वरूप समिति एवंगुप्ति है। चारित्र कीअनुपालनाइन आठ आचारोंसेहोती है। यद्यपियहसमिति-गुप्त्यात्मक आचार मुनि जीवन से जुड़ा हुआ है तथापि कोई भी व्यक्ति अपने सामर्थ्य के अनुसार उनका यथोचित पालन कर सकता है। तपआचार ___ भारतीय साधना-पद्धति में तपस्या का प्रमुख स्थान रहा है। जैन और वैदिक मनीषियों 1. मूलाराधना, (ले. शिवार्य, सोलापुर, 1 9 6 5) 6/1200, एदाहिं सदा जुत्तो समिदीहिं जगम्मि विहरमाणे हु। हिंसादिहिं न लिप्पइ, जीवणिकायाउले साहू। 2. वही, 6/1202, सरवासे वि पडते जह दढकवचोण विज्झदि सरेहिं। तह समिदीहिंण लिप्पई, साधू काएस इरियंतो।। 3. उत्तरज्झयणाणि, 24/1,तओ गुत्तीओ आहिया। 4. मूलाराधना, 6/1189, छेत्तस्स वदी णयरस्स,खाइया अहव होइ पायारो। तह पावस्स णिरोहो, ताओ गुत्तीओ साहुस्स। 5. उत्तरज्झयणाणि, 24/26, एयाओ पंच समिईओ, चरणस्सय पवत्तणे। गुत्ती नियत्तणे वुत्ता असुभत्थेसु सव्वसो॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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