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________________ 256 स्थैर्य, प्रभावना, भक्ति, जिनशासन में कौशल और तीर्थ सेवा - ये पांच सम्यक्त्व के भूषण कहे जाते हैं ।' स्थैर्य, प्रभावना और भक्ति क्रमश: स्थिरीकरण, प्रभावना और वात्सल्य हैं। जिनशासन में कौशल और तीर्थ सेवा को भी वात्सल्य का उपभेद माना जा सकता है । सम्यग्दर्शन के आठों अंग सत्य की आस्था के परम अंग हैं । कोई भी व्यक्ति शंका (संदेह या भय) कांक्षा, (आसक्ति या वैचारिक अस्थिरता) विचिकित्सा (घृणा या निंदा) मूढ दृष्टि (अपनी नीति के विरोधी विचारों के प्रति सहमति) से मुक्त हुए बिना सत्य की आराधना नहीं कर सकता और उसके प्रति आस्थावान भी नहीं रह सकता । स्व सम्मत धर्म या साधर्मिकों का उपबृंहण, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना किए बिना कोई व्यक्ति सत्य की आराधना करने में दूसरों का सहायक नहीं बन सकता। इस दृष्टि से दर्शनाचार के ये आठों अंग बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं । चारित्राचार जो कर्म संचय को रिक्त करता है वह चारित्र कहलाता है. -..... एयं चयरित्तकरं, चारित्तं होइ आहियं । जिससे मुक्ति की प्राप्ति होती है उसे चारित्र कहा जाता है । चारित्र का लक्षण है-सत् आचरण में प्रवृत्ति और असत् आचरण से निवृत्ति ।' चारित्र के पांच प्रकार बतलाए गए हैं। वस्तुत: वह एक ही है। चारित्र के पांच भेद विशेष दृष्टि से किए गए हैं। सर्व सावद्य प्रवृत्ति का त्याग किया जाता है, वह सामायिक चारित्र है। छेदोपस्थापनीय आदि चारित्र इसी के विशेष रूप हैं ।' समिति - गुप्ति रूप आचरण को चारित्राचार कहा जाता है । चारित्राचार के आठ प्रकार हैं- पांच समिति एवं तीन गुप्तियों का प्रणिधान | S समिति का अर्थ है - सम्यक् प्रवर्तन । सम्यक् और असम्यक् का मापदण्ड अहिंसा है । जो प्रवृत्ति अहिंसा से संवलित है वह समिति हैं। समितियां पांच हैं ' 6_ जैन आगम में दर्शन 1. ईर्या समिति - गमनागमन सम्बन्धी अहिंसा का विवेक । भाषा समिति - भाषा सम्बन्धी अहिंसा का विवेक । एषणा समिति- आहार, वस्त्र आदि के ग्रहण और परिभोग सम्बन्धी अहिंसा का विवेक । 2. 3. 1. योगशास्त्र, 2 / 16, स्थैर्यं प्रभावना भक्तिः कौशलं जिनशासने । तीर्थसेवा च पंचास्य, भूषणानि प्रचक्षते । । 2. उत्तरज्झयणाणि, 28 / 33 3. उत्तराध्ययन, बृहद्वृत्ति पत्र 556, चरन्ति गच्छन्त्यनेन मुक्तिमिति चारित्रम् | चारित्रं.......सदसत्क्रियाप्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणम् । 4. तत्त्वार्थवार्तिक, 9 / 18, सर्वसावद्यनिवृत्तिलक्षणसामायिकापेक्षया एकं व्रतं, भेदपरतंत्रच्छेदोपस्थापनापेक्षया पंचविधं व्रतम् । 5. दशवैकालिकनिर्युक्ति, गाथा 89, पणिहाणजोगजुत्तो पंचहिं समितीहिं तिहिं य गुत्तीहिं । एस चरित्तायारो अद्वविहो होइ णायव्वो । 6. उत्तरज्झयणाणि, 24 / 1, पंचेव य समिईओ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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