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जैन आगम में दर्शन
ने उसे साधना का अपरिहार्य अंग माना है। तपस्या कर्म निर्जरण का मुख्य साधन है। इससे आत्मा पवित्र होती है। जैन साधना के अनुसार तपस्या का अर्थ काय-क्लेश या उपवास ही नहीं है। स्वाध्याय, ध्यान, विनय आदि सब तपस्या के ही प्रकार हैं। काय-क्लेश और उपवास अकरणीय नहीं है और उनकी सबके लिए कोई समान मर्यादा भी नहीं है। अपनी रुचि और शक्ति के अनुसार जो जितना कर सके उसके लिए उतना ही विहित है।
- जैन परम्परा में बारह प्रकार के तप आचार का उल्लेख हुआ है। पूजा-प्रतिष्ठा की आकांक्षा से रहित, अदीनभाव से बारह प्रकार के बाह्य और आभ्यन्तर तप का आचरण करना तप आचार है
बारसविहम्मि वि तवे सब्भिंतर बाहिरे कुसलदिढे।
_ अगिलाए अणाजीवी णायव्वो सो तवायारो॥' कर्मशरीर को तपाने वाला अनुष्ठान तथा कर्मक्षय का असाधारण हेतु, तप कहलाता है। जो आठ प्रकार की कर्म ग्रन्थियों को तपाता है-उनका नाश करता है, वह तप है।
जैन दर्शन के अनुसार तपस्या के दो प्रकार हैं-बाह्य एवं आभ्यन्तर । बाह्य तप के छह प्रकार हैं-अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रस-परित्याग, कायक्लेश एवं प्रतिसंलीनता। 1-2. अनशन और अवमोदरिका से भूख और प्यास पर विजय पाने की ओर गति
होती है। 3 - 4.भिक्षाचर्या और रस-परित्याग से आहार की लालसा सीमित होती है। जिह्वा
की लोलुपता मिटती है और निद्रा, प्रमाद आदि को प्रोत्साहन नहीं मिलता है। 5. काय-क्लेश सेसहिष्णुता का विकास होता है। देह में उत्पन्न दु:खों को समभाव
से सहने की वृत्ति बनती है। 6. प्रतिसंलीनता से आत्मा की सन्निधि में रहने का अभ्यास बढ़ता है। बाह्य तप
के आसेवन से देहाध्यास छूट जाता है। देहासक्ति साधना का विघ्न है। बाह्य
तप का आसेवन इस देह के प्रति होने वाले ममत्व को कम करता है। आभ्यंतर तप के छह भेद हैं- प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान एवं व्युत्सर्ग । बाह्य तपका आचरणभी आभ्यन्तर तपके उपबृंहण के लिए किया जाता है। आचार्य महाप्रज्ञजी ने आभ्यन्तर तप से होने वाले लाभों का उल्लेख किया है1. प्रायश्चित्त से अतिचार-भीरुता और साधना के प्रति जागरूकता विकसित
होती है।
1. दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा 90 2. दशवैकालिक चूर्णि, पृ. 15 (जिनदासमहत्तर) तवोणाम तावयति अट्टविहं कम्मगंठिं नासेति त्ति वुत्तं भवइ। 3. उत्तरज्झयणाणि, आमुख 30वां अध्ययन पृ. 219
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