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________________ आचार मीमांसा 259 2. विनय से अभिमान मुक्ति और परस्परोपग्रह का विकास होता है। 3. वैयावृत्त्य से सेवाभाव पनपता है। 4. स्वाध्याय से विकथा त्यक्त हो जाती है। 5. ध्यानसेएकाग्रता, एकाग्रतासेमानसिक विकास एवंमन तथा इन्द्रियों पर नियंत्रण पाने की क्षमता बढ़ती है और अन्त में उनका पूर्ण निरोध हो जाता है। 6. व्युत्सर्ग से शरीर, उपकरण आदि पर होने वाले ममत्व का विसर्जन होता है।' यद्यपि तप चारित्र का ही एक प्रकार है। फिर भी मोक्षमार्ग में इसका विशिष्ट स्थान है। यह कर्म क्षय करने का असाधारण हेतु है अत: इसका पृथक् उल्लेख किया गया है। तप का उद्देश्य कोई भी क्रिया की जाती है तो उसका कोई-न-कोई उद्देश्य होता है। प्रश्न उपस्थित होता है, तप का आसेवन क्यों करना चाहिए। सूत्रकार इस प्रश्न को समाहित करते हुए कहते हैं 1. इहलोक (वर्तमान जीवन की भोगाभिलाषा) के निमित्त तप नहीं करना चाहिए। 2. परलोक (पारलौकिक भोगाभिलाषा) के निमित्त तप नहीं करना चाहिए। 3. कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक के लिए तप नहीं करना चाहिए। 4. निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप नहीं करना चाहिए।' इसका तात्पर्य यही हुआ कि जिन-प्रवचन में आत्म-शुद्धि के लिए ही आचार उपादेय है। आत्म-शुद्धि के अतिरिक्त अन्य किसी भी हेतु से किया जाने वाला आचरण जैन-दर्शन में कर्ममुक्ति का साधक नहीं माना गया है। वीर्याचार वीर्य अर्थात् शक्ति । साधक को अपनी शक्ति का संगोपन नहीं करना चाहिए। भगवान् महावीर ने कहा- णो णिहेज्न वीरियं । अर्थात् अपनी शक्ति का संगोपन मत करो। साधना के क्षेत्र में उसका उपयोग आवश्यक है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप में अपनी शक्ति को नियोजित करना ही वीर्याचार है। दशवैकालिक नियुक्ति में कहा-अपनी शक्ति का गोपन न करते हुए ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तपकी आराधना में पराक्रम करना वीर्याचार है। वीर्याचार के छत्तीस 1. उत्तरज्झयणाणि, आमुख 30वां अध्ययन, पृष्ठ 220 2. उत्तराध्ययन वृत्ति, पत्र 5 5 6 (शान्त्याचार्य) चारित्रभेदत्वेऽपि तपस: पृथगुपादानमस्त्यैव क्षपणं प्रत्यसाधारण हेतुत्वमुपदर्शयितुम्। 3. दसवेआलियं, 9/4/6........ नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिट्ठज्जा। 4. आयारो,5/41 स्थानांग वृत्ति, प. 64, वीर्याचारस्तु ज्ञानादिष्वेव शक्तेरगोपनंतदनतिक्रमश्चेति । 6. दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा 91, अणिगृहितबल-विरिओ परक्कमति जो जहुत्तमाउत्तो। झुंजइ य जहाथामणायव्वो वीरियायारो॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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