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जैन आगम में दर्शन
प्रकार बताए गए हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप के सारे भेद मिलाने से छत्तीस होते हैं तथा वे ही वीर्याचार के प्रकार हैं। इस संदर्भ में यह स्मरणीय है कि शक्ति के अभाव में ज्ञान आदि का आसेवन नहीं हो सकता। ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम है, किंतु अन्तराय कर्म का क्षयोपशम नहीं है तो ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम कार्यकारी नहीं बन सकता। उसका उपयोग तभी हो सकता है जब साथ में अन्तराय का भी क्षयोपशम हो । सभी क्षयोपशम के साथ अन्तराय का क्षयोपशम हो तो ही वे अपना कार्य कर सकते हैं। अत: अन्तराय का क्षयोपशम महत्त्वपूर्ण है। वीर्य अन्तराय के क्षयोपशम से ही प्राप्त होता है। वीर्याचार का अर्थ है-जो शक्ति प्राप्त हुई है उसका उपयोग करना । उसको कार्यकारी बनाना । जो शक्ति को प्राप्त करके भी आलस्य या प्रमाद के कारण उसका सही उपयोग नहीं करता वह वीर्याचार के पालन में स्खलित हो जाता है। फलस्वरूप अपने मार्ग से च्युत हो जाने के कारण अपने इष्ट लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। जो शक्ति का संगोपन नहीं करता, वह वीर्याचार का पालन सम्यक् प्रकार से करता है। ध्यान, स्वाध्याय, तप आदि में संलग्न शक्ति साधक को उच्च आदर्श की ओर प्रस्थित करती है। साधना के विभिन्न प्रकार हैं। उनका संक्षेप में निर्देश यहां काम्य है। धुत की साधना
'धुत' प्राचीन भारतीय साधना पद्धति का प्रचलित शब्द था तथा भारत के सभी धर्मों में इसकोसम्मानजनक स्थान प्राप्त था।जैन परम्परामें 'आचारांग' जैसे प्राचीन ग्रन्थ में इसका निरूपण है।' बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'विसुद्धिमग्ग' में तेरह धुताङ्गों का उल्लेख है। भागवत में भी इसका उल्लेख प्राप्त होता है। अवधूत परम्परा का मूल 'धुतवाद' में खोजा जा सकता है, ऐसा आचार्य महाप्रज्ञ जी का अभिमत है।'
धुत का अर्थ है-प्रकम्पित और पृथक्कृत । धुतवाद कर्म-निर्जरा का सिद्धान्त है। . जिन-जिन हेतुओं से कर्मों की निर्जरा होती है उन सबकी धुतसंज्ञा होती है।' धुत लक्ष्य को प्राप्त करने की साधना पद्धति है। संयम एवं मोक्ष की आराधना के लिए नि संगता एवं कर्मविधूनन अनिवार्य है। आसक्ति एवं कर्म ये दोनों साधक को पथच्युत करने में पर्याप्त हैं अतएव इनका विधूनन एवं अपनयन अपेक्षित है। स्थूल शरीर का निर्माण सूक्ष्म शरीर के कारण होता है। यदि सूक्ष्म शरीर को नष्ट कर दिया जाए तो स्थूल शरीर अपने आप ही समाप्त हो जाएगा। धुताचार की साधना करने वाला महर्षि वर्तमानदर्शी होता है, इसलिए वह कर्मशरीर काशोषण कर उसे क्षीण कर डालता है। 1. आचारांग के छठे अध्ययन का नाम ही 'धुतवाद' है। 2. विसुद्धिमग्गगो (पठमो भागो) (संपा. डॉ. खेतधम्मो, वाराणसी, 1969) 1/2, पृ. 144, तेरसधुतांगानि
भागवत (आचारांग भाष्य में उद्धृत, पृ. 297) 4. आचारांगभाष्यम् छठे अध्ययन का आमुख, पृ. 298
आचारांगभाष्यम् 6 का आमुख, पृ. 297,धुतवादोऽस्ति कमनिर्जराया: सिद्धान्त: । यैहेतुभि: कर्मणां निर्जरा
जायते ते सर्वेऽपि धुतसंज्ञकानि भवन्ति । 6. आयारो, 3/60, विधूत-कप्पे एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी।
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