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________________ आचार मीमांसा 261 आचारांग के समय में 'धुतवाद' की साधना बहु-प्रचलित थी, इसका आभास आचारांग के छठे अध्ययन तथा अन्यत्र विकीर्ण रूप से प्राप्त 'धुत' के सूत्रों से हो जाता है। 'धुतवाद' नामक अध्ययन के नियुक्तिकार ने पांच उद्देशक बताये हैं, जिनमें पांच धुतों का वर्णन है - 1. निजकधुत-स्वजन के प्रति होने वाली ममत्व चेतना का प्रकम्पन। 2. कमंधुत-कर्म पुदगलों का प्रकम्पन । 3. शरीर-उपकरण धुत-शरीर और उपकरणों के प्रति होने वाली ममत्व चेतना का प्रकम्पन। 4. गौरवधुत-ऋद्धि, रस और साता-इस गौरवत्रयी का प्रकम्पन । 5. उपसर्गधुत-अनुकूल और प्रतिकूल भावों से उत्पन्न चेतना का प्रकम्पन। कर्मबन्ध का प्रमुख हेतु है -- ममत्वभाव । शरीर, उपकरण और स्वजन-ये ममत्वचेतना को पुष्ट करते हैं। धुत साधना का यही प्रयोजन है कि उन संयोगों का परित्याग करना जिससे ममत्वचेतना पुष्ट होती है। ममत्वचेतना का परित्याग आत्मज्ञान से हो सकता है। जो आत्मप्रज्ञ नहीं हैं वे अवसाद का अनुभव करते हैं । धुत से आत्मप्रज्ञा का जागरण होता है। आत्मप्रज्ञा के सुस्पष्ट होने पर ही शरीर के प्रति होने वाली आसक्ति क्षीण होती है। तप के अनेक प्रकार उपदिष्ट हैं। जिससे कर्मों का प्रकम्पन अथवा निर्जरा होती है उसे तय कहा जा सकता है। इससे यह फलित होता है कि जहां विशिष्ट तितिक्षा, लाघव और तप-ये तीनों सम्यक् प्रकार से प्राप्त हो जाते हैं, वहां धुत की साधना होती है। साधना मार्ग पर अग्रसर साधक को स्वजन विचलित करना चाहते हैं। प्रव्रज्या के समय आक्रन्दन से अथवा विषण्ण बनते हुए उसको रोकने का प्रयत्न करते हैं किन्तु आत्मसाधक उनको छोड़ देता है। यह स्वजन परित्याग धुत है।' कर्म विधूनन की प्रधानता उपकरण एवं शरीर के प्रति ममत्व भाव होना सहज है। ये सब ममत्व चेतना को पुष्ट करते हैं। ममत्व चेतना संसार-वृद्धि का हेतु बनती है, अतएव ममत्व चेतना का परित्याग ही धुत साधना का प्रयोजन है। गौरव, अहंकार एवं मद व्यक्ति को अभिभूत कर देते हैं। इनके द्वारा आत्मप्रज्ञा परास्त हो जाती है। ऋद्धि, रस एवं सात के गौरव से साधक उन्मत्त हो जाता 1. आचारांग नियुक्ति, गाथा 2 49,250, पढमे नियगविहुणणा कम्माणं बितियए तइयगंमि । उवगरणसरीराणं चउत्थए गारवतिगस्स।। उवसग्गा सम्माण य विहूआणि पंचमंमि उद्देसे। दव्वधुयं वत्थाई भावधुयं कम्मअट्ठविहं ।। 2. आचारांग भाष्य पृ. 297 3. वही,6/26-29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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