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जैन आगम में दर्शन
धर्म-अधर्म की उपयोगिता
धर्मास्तिकाय का लक्षण गति और अधर्मास्तिकाय का लक्षण स्थिति है।' गति और स्थिति से ही लोक की व्यवस्था होती है। जहां गति और स्थिति है वहां लोक है, जहां गति
और स्थिति नहीं है वह अलोक है। इन दो द्रव्यों ने ही आकाश को दो भागों में विभक्त किया है। लोकाकाश और अलोकाकाश।
आगमन-गमन, भाषा, उन्मेष, मनयोग, वचनयोग, काययोग आदि जितने भी चल भाव हैं, इन सबका आलम्बन गति सहायक धर्म द्रव्य ही है।' वैसे ही बैठना, सोना, खड़ा होना, मन को एकाग्र करना आदि जितने भी स्थिरभाव हैं उनसबका आलम्बन स्थिति सहायक अधर्म द्रव्य है। धर्म-अधर्मदोनों ही द्रव्य क्रमश: जीवएवंपुद्गल कीगति-स्थिति के उपकारक
द्रव्य हैं।
लोक के आकार का निर्धारण इन दोनों द्रव्यों के आधार पर होता है। लोक का आकार सुप्रतिष्ठकसंस्थान 'त्रिशरावसम्पुटाकार' माना गया है। पर वास्तव में वह आकार धर्म एवं अधर्म का ही है। इनके आकार के आधार पर ही लोक के आकार की व्याख्या की जाती है। लोक-अलोक की विभाजक रेखा इन तत्त्वों के द्वारा ही निर्धारित होती है। इनके बिना लोकअलोककी व्यवस्था नहीं बनती। “लोकालोकव्यवस्था-न्यथानुपपत्ते:' गति-स्थिति निमित्तक द्रव्य तथा लोक-अलोक की विभाजक शक्ति के रूप में धर्म-अधर्म की अनिवार्य अपेक्षा है। गति-स्थिति सम्पूर्ण लोक में होती है। इसलिए हमें ऐसी शक्तियों की अपेक्षा है, जो स्वयं गतिशून्य और सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हों और अलोक में न हों । इस यौक्तिक आधार पर हमें धर्म-अधर्म की आवश्यकता का सहज बोध होता है।
धर्म-अधर्म के अस्तित्व के संदर्भ में एक शंका यह भी की जाती है कि वे दोनों दिखाई नहीं देते फिर उनका अस्तित्व कैसे स्वीकार किया जा सकता है? इसका समाधान इस रूप में प्राप्त होता है कि ये दोनों अमूर्त्तद्रव्य हैं। अमूर्त्तद्रव्यों का ग्रहण इन्द्रियों से नहीं हो सकता।' वेतोउपग्रह के द्वारा अनुमेय होते हैं-उपग्रहानुमेयत्वात् । भगवती टीका में भी कहा गया है कि छद्मस्थ को अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान उनके कार्यों के द्वारा ही होता है। गति सहायकत्व एवं स्थितिसहायकत्वरूप कार्य हमारे सामने है इससे इनके अस्तित्व का सहज अनुमान हो जाता है। 1. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 13/56-57,..............गइलक्खणे णं धम्मत्थिकाए।
............ठाणलक्खणे णं अधम्मत्थिकाए। 2. वही, 2/ 138 3. वही, 13/56 4. वही, 1 3/57 5. वही, 11/98 6. वही, 18/139 1. उत्तराज्झयणाणि, 14/19, नो इंदियग्गेज्झ अमुत्तभावा । 8. भगवती वृत्तिपत्र, (ले. अभयदेवसूरि, मुम्बई, वि.सं. 2049)752, कार्यादिलिंगद्वारेणैवाग्दिशामतीन्द्रिय
पदार्थावगमोभवति।
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