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तत्त्वमीमांसा
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चार अस्तिकाय के अष्ट मध्यप्रदेश
भगवती एवं स्थानांग में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं जीवास्तिकाय के आठ-आठमध्यप्रदेशों का उल्लेख है।' स्थानांग टीका में उन मध्यप्रदेशों को रुचक रूप कहा है। भगवती वृत्तिकार ने चूर्णिकार के मत को अभिव्यक्त करते हुए कहा है कि धर्मास्तिकाय के मध्य प्रदेश अष्ट रुचक प्रदेशों पर अवगाहित हैं। वृत्तिकार अपना मत प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि धर्मास्तिकाय आदि लोकव्यापी होने के कारण उनका मध्य तो रत्नप्रभावकाशन्तर ही है रुचक नहीं है फिर भी दिशा अनुदिशा की उत्पत्ति रुचक से होती है अत: धर्मास्तिकाय आदि का मध्य भी वहां विवक्षित कर दिया होगा, ऐसी सम्भावना की जा सकती है। केवली समुद्घात में जीव के आठ अविचल मध्य प्रदेश रुचक-स्थित होते हैं।' इसका तात्पर्य यह परिलक्षित होता है कि केवली समुद्घात के समय जीव सर्वलोकव्यापी होता है उस समय उसके आठ मध्य प्रदेशों का अवस्थान लोक के आठ मध्य प्रदेशों पर होता है तथा धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय के मध्य प्रदेश तो पहले से ही उस स्थान पर स्थित हैं। धर्म, अधर्म, लोकाकाश एवं एक जीव के प्रदेश समतुल्य हैं। संख्यात्मक दृष्टि से समान है, जितने एक जीव के प्रदेश हैं उतने ही अन्य के हैं। कम-ज्यादा नहीं हैं। धर्म-अधर्म एवं आकाश द्रव्य तो निष्क्रिय है अत: उनके प्रदेश तो जहां स्थित हैं वहीं रहेंगे किंतु जीव के प्रदेशों में संकोच विस्तार होता है किंतु मध्य के अष्ट प्रदेश अविचल होते हैं। केवली-समुद्धात के समय वे ही मध्यप्रदेश लोक के रुचक प्रदेशों पर स्थित होते हैं। भगवती में उल्लेख है कि जीव के अष्ट मध्य प्रदेश जघन्य रूप से आकाश के एक, दो, तीन, चार, पांच, छ: आकाश प्रदेशों में एवं उत्कृष्ट आठ आकाश प्रदेशों पर स्थित हो सकते हैं किंतु सात आकाश प्रदेश पर स्थित नहीं हो सकते। सात आकाश प्रदेश पर अवस्थिति का निषेध क्यों किया गया है? इसका कोई हेतु नहीं दिया गया है।
1. (क) अंगसुत्ताणि भाग 2 'भगवई' 25/240-243
(ख) ठाणं, 8/48-51 2. स्थानांगसूत्रं समवायांगसूत्रं च (स्थानांगवृत्ति) पृ. 289,......मध्यप्रदेशास्ते ये रुचकरूपा। 3. भगवती, वृत्तिपत्र 8 87, अट्ठधम्मत्थिकायस्स मज्झपएस त्ति, एते च रुचकप्रदेशाष्टकावगाहिनोऽवसेया इति
चूर्णिकार:।
ही, पृ. 887, इह च यद्यपि लोकप्रमाणत्वेन धर्मास्तिकायादेमध्यं रत्नप्रभावकाशान्तरं एव भवति न रुचके
तथाऽपि दिशामनुदिशां च तत्प्रभवत्वाद्धास्तिकायादि मध्यं तत्र विवक्षितमिति संभाव्यते। 5. स्थानांगसूत्रंसमवायांगसूत्रं च, (स्थानांगवृत्ति) पृ. 289,जीवस्यापि केवलिसमुद्घाते रुचकस्था एव ते........। 6. ठाणं, 4/495 7. स्थानांगसूत्रंसमवायांगसूत्रंच, (स्थानांग, टीका) पृ. 289,..........ते अन्यदात्वष्टावविचला येतेमध्यप्रदेशा: ।
अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 25/244, एएणं भंते! अट्ठजीवत्थिकायस्स मज्झपदेसा कतिसुआगासपदेसेसु ओगाहंति। गोयमा जहण्णेणं एक्कंसिवा दोहिंवा तीहिंवा चउहिंवा पंचहिंवा छहिंवा, उक्कोसेणं अट्टस्सनो चेव सत्तस्।
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