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जैन आगम में दर्शन
टीकाकार ने “वस्तु-स्वभाव'' कहकर इसको समाहित करने का प्रयत्न किया है।। फिर भी जिज्ञासा तो बनी ही रहती है कि मात्र सात का ही निषेध क्यों किया गया? हो सकता है इसके पीछे कोई विशेष दृष्टि रही हो किंतु टीकाकार के समय में वह दृष्टि विलुस हो गई हो, ऐसी स्थिति में आगम-प्रमाण पर ही हम अवलम्बित रह सकते हैं। संभावना तो यह भी की जा सकती है कि शायद कोई गणित का ऐसा नियम हो जिसके कारण वे आठ-प्रदेश आकाश के सात प्रदेशों पर स्थित नहीं हो सकते।
भगवती एवं स्थानांग दोनों में ही आकाशास्तिकाय के आठ मध्य प्रदेश का उल्लेख है संभवत: यहां लोकाकाश के अर्थ में आकाशास्तिकाय का प्रयोग हुआ है, क्योंकि आकाशास्तिकाय के प्रदेश तो अनन्त हैं तब उसके मध्य प्रदेश क्या होंगे? लोकाकाश का प्रदेशाग्र धर्म-अधर्म एवं एक जीव के प्रदेशाग्र के तुल्य हैं उनके मध्य प्रदेशों का उल्लेख हैं अत: यह उल्लेख लोकाकाश के लिए ही हुआ प्रतीत होता है।
भगवती के 25 वें शतक में जीवास्तिकाय के आठ मध्यप्रदेश माने हैं। यहां जीवास्तिकाय शब्द का प्रयोग जीव के संदर्भ में हुआ है न कि जीव-समुदय के रूप में। जैसा कि दूसरे शतक में जीव-समुदय के अर्थ में जीवास्तिकाय शब्द का प्रयोग हुआ है। ठाणं में तो जीव के ही आठ मध्यप्रदेश माने हैं। इससे भी यह तथ्य समर्थित होता है। जीव-पुद्गल की गति लोक में ही क्यों?
जीव और पुद्गल गतिशील द्रव्य हैं। उनकी गति में सहायक तत्त्व कौन हैं ? वे लोक में ही गति क्यों करते हैं ? अलोक में क्यों नहीं जाते ? ये प्रश्न स्वाभाविक रूप से उपस्थित होते हैं। आगमोत्तर काल के जैन साहित्य में उत्तर दिया गया है कि जीव और पुद्गल धर्मास्तिकाय के सहयोग से गति करते हैं, अलोक में धर्मास्तिकाय नहीं है अत: वे अलोक में नहीं जा सकते।' आगम साहित्य में धर्मास्तिकाय को तो गति के सहायक द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है, किंतु वहां पर धर्मास्तिकाय के अतिरिक्त अन्य कारणों का भी गति सहायक तत्त्व के रूप में उल्लेख प्राप्त है।
स्थानांग में बतलाया गया है कि चार कारणों से जीव और पुद्गल लोक से बाहर नहीं जा सकते' -
1. भगवती, वृत्ति पत्र 887, नोचेवणं सत्तसुवि' त्ति वस्तुस्वभावादिति । 2. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 25/244 3. वही, (भगवई)2/128,दव्वओणंजीवत्थिकाए अणंताइंजीवदव्वाई। 4. ठाणं, 8/51 5. जैन सिद्धान्त दीपिका, वृत्ति 1/5, एतयोरभावादेव अलोके जीवपुद्गलानामभाव: 1 6. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2/125, गुणओ गमणगुणे।
ठाणं, 4/498,चउहिंठाणेहिंजीवाय पोग्गलायणोसंचाएंति बहिया लोगंतागमणयाए,तं जहा -- गतिअभावेणं, णिरुवग्गहयाए, लुक्खताए, लोगाणुभावेणं।
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