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तत्त्वमीमांसा
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पुद्गल परमाणु एवं स्कन्ध के भेद से द्विविध है। परमाणु भी अनन्त हैं एवं स्कन्ध भी अनन्त हैं। उन अनन्त परमाणु एवं अनन्त स्कन्धों के समूह को पुद्गलास्तिकाय कहा गया है।' जैसे जीव अनन्त है वैसे ही परमाणु एवं स्कन्ध भी अनन्त हैं। जीव के असंख्य प्रदेश सदैव संलग्न रहते हैं किंतु पुद्गल के ऐसा नियम नहीं है। संख्यात्मक दृष्टि में समानता होने पर भी स्वरूप की दृष्टि से जीव और पुद्गल के अस्तिकायत्व में परस्पर भेद है।
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय-ये तीनों अमूर्त होने के कारण अदृश्य हैं। जीवास्तिकाय अमूर्त होने के कारण दृश्य नहीं है फिर भी शरीर के माध्यम से प्रकट होने वाली चैतन्यक्रिया के द्वारा वह दृश्य है। पुद्गलास्तिकाय मूर्त होने के कारण दृश्य है। परमाणु, द्विप्रदेशी यावत् सूक्ष्म परिणति वाले अनन्त प्रदेशी पुद्गल स्कन्ध मूर्त होने पर भी सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है। धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय
धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय का संक्षिप्त नाम धर्म एवं अधर्म है। भारतीय दर्शन में धर्म, अधर्म शब्द का प्रयोग आचार-मीमांसा के संदर्भ में, शुभाशुभ प्रवृत्ति के अर्थ में तो हुआ है, पर तत्त्व-मीमांसा की दृष्टि से धर्म और अधर्म का मौलिक तत्त्वों के रूप में निरूपण जैन दर्शन में ही प्राप्त होता है। षड्द्रव्यों में चार का उल्लेख तो इतर दर्शनों में भी प्राप्त है पर धर्म-अधर्म की स्वीकृति जैन दर्शन की मौलिक है। धर्म-अधर्म दोनों अमूर्त द्रव्य हैं। अजीव हैं, शाश्वत एवं अवस्थित हैं। एक स्कन्ध रूप हैं अत: इनको द्रव्य से एक द्रव्य कहा जाता है। क्षेत्र की अपेक्षायेसम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। कालसेइनकात्रैकालिक अस्तित्व है। धर्मास्तिकाय के सभी प्रदेशों में गति में सहयोगी बनने की क्षमता है तथा अधर्मास्तिकाय के सभी प्रदेशों में स्थिति में सहयोगी बनने की क्षमता है। धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय असंख्यप्रदेशात्मक है। ये क्रमश: गति-स्थिति सहायक बनते हैं। किंतु गति-स्थिति के प्रेरक नहीं हैं, ये स्वयं निष्क्रिय हैं। यद्यपि आगम साहित्य में इनकी सक्रियता तथा निष्क्रियता का उल्लेख नहीं है जैसा कि तत्त्वार्थ ने स्पष्ट रूप से इन्हें निष्क्रिय कहा है। भगवती में इनको द्रव्य से एक द्रव्य तथा क्षेत्र से लोक-प्रमाण कहा है। इसका तात्पर्य हुआ कि ये एकात्मक होते हुए सर्वव्यापक हैं तथा जो एकद्रव्य रूप में व्यापक हैं वह सक्रिय नहीं हो सकता अत: निष्कर्ष रूप में इनकी निष्क्रियता सिद्ध हो जाती है। आगमोत्तर साहित्य में धर्म-अधर्म के कार्य को क्रमश: मछली एवं पृथ्वी आदि के उदाहरण से समझाया गया है। वैसा प्रयत्न आगम साहित्य में उपलब्ध नहीं है। 1. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2/129 2. वही, 2/125,126 3. वही, 2/134-135 4. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, 5/6 5. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई)2/125-126 6. पंचास्तिकाय, गाथा 8 5 - 8 6, उदयं जह मच्छाणं.......................कारणभूदं तु पुढवीव ।।
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