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षड्जीवनिकाय (151): षड्जीवनिकाय : जैन दर्शन की मौलिक अवधारणा (151 - 152); पृथ्वीकाय (152); पृथ्वीकाय में श्वास (152 - 154); पृथ्वीकाय की अवगाहना (1 5 4); पृथ्वीकाय में आश्रव (154): पृथ्वीकाय में उन्माद (155); पृथ्वीकाय में ज्ञान (155); पृथ्वीकाय में आहार की अभिलाषा (155-156); पृवीकाय में क्रोध (156); पृथ्वीकाय में लेश्या (156); पृथ्वीकाय में वेदना (156); तीन दृष्टान्तों से वेदना निरूपण (156 - 157); अप्काय (157- 1 5 8); अप्कायिक जीवों के जीवत्व सिद्धि में हेतु का प्रयोग (158); अप्काय के शस्त्र (159); तेजस्काय (159); तेजस्कायिक जीवों के जीवत्व सिद्धि में हेतु का प्रयोग (160); अग्निकाय के शस्त्र (160); वायुकाय (161); वायुकाय के शस्त्र (161); वनस्पतिकाय (161-16 2); वनस्पति की सचेतनता (162); वनस्पतिकाय के शस्त्र (163); पांच स्थावर परिणत एवं अपरिणत (163); वायु : सचित्त एवं अचित्त (1 6 3 - 164): जल : सचित्त एवं अचित्त (1 64-166) त्रस प्राणी (166); त्रस की परिभाषा ( 1 6 6 - 167); त्रस और स्थावर (167); षड्जीवनिकाय : त्रस एवं स्थावर (16 7-168); त्रस-स्थावर के विभाग की आगमकालीन अवधारणा (169); आगम व्याख्या साहित्य में त्रस एवं स्थावर (169); गति एवं लब्धि त्रस (169-170); एकेन्द्रिय-स्थावर अन्य-वस (170) शरीर रचना और ज्ञान का सम्बन्ध (170171); जीव स्वरूप, अभिज्ञान एवं लक्षण (171 - 172); जीव के व्यावहारिक लक्षण (172-173); आत्मा के अवयव (173-174); जीवास्तिकाय और जीव (174-175): जीव की देह परिमितता (175); जैनेतर दर्शन की अवधारणा
(175); जैन दर्शन की स्वीकृति (176 - 1 78) पंचम अध्याय : कर्ममीमांसा
179-242 आस्तिक नास्तिक का शब्दार्थ : कर्मसिद्धान्त का महत्त्व (179); कर्मसिद्धान्त का आधार : आगम प्रामाण्य (179-180); विविधता का मूल कर्म (180-181); जैन दर्शन में विविधता का हेतु (181); विविधता के पांच हेतु (181-182) जीव एवं कर्म का सम्बन्ध (182 - 183); ब्रह्मवाद (183); भूतवाद (18 3); द्वैतवाद (183); सांख्यमत (1 8 3 - 184); नैयायिक मत (184); जैनमत (184); सम्बन्ध : भौतिक या अभौतिक (184-18 5); नद का उदाहरण (185); जीव
और पुद्गल का सादृश्य (185 - 186); आत्मा एवं शरीर का भेदाभेद (186 - 187); जीव परिभोक्ता एवं पुद्गल परिभोग्य (187); सम्बन्ध का स्वरूप (187188); आत्मा पर कर्म का आवेष्टन-परिवेष्टन (188); कर्म का बंध कब से? (189)
(ix)
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