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________________ 32 जैन आगम में दर्शन चतुर्दशपूर्वी या दशपूर्वी स्थविरों द्वारा रचे गए थे। इसलिए उन्हें आगम की कोटि में रखा गया। उसके फलस्वरूप आगम के दो विभाग किए-1. अंग-प्रविष्ट और 2. अंग-बाह्य । आगमों का अंग-प्रविष्ट एवं अंग-बाह्य विभाग अनुयोगद्वार जो वीर निर्वाण छठी शताब्दी की रचना है, तक नहीं हुआ था। यह विभाग सर्वप्रथमनंदी में हुआ, जो वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी की रचना है। नंदी की रचना तक आगम के तीन वर्गीकरण हो जाते हैं- 1. पूर्व 2. अंग-प्रविष्ट और 3. अंग-बाह्य । वर्तमान में अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य ग्रन्थ तो उपलब्ध है किंतु पूर्व' साहित्य विलुप्त हो गया है।' नंदी के उत्तरकाल में जैन आगम को चार भागों में विभक्त किया गया-1. अंग 2. उपांग 3. मूल और 4.छेद । आगमों का यह वर्गीकरण अर्वाचीन है। विक्रम की 13 - 14वीं शताब्दी से पूर्व इस वर्गीकरण का उल्लेख प्राप्त नहीं है। आगमों का सबसे प्राचीन विभाग अंग और पूर्व है। अंग, उपांग, मूल और छेद यह विभाग अर्वाचीन है। पूर्व साहित्य जैन परम्परा में चौदह पूर्वो का सम्माननीय स्थान रहा है। ऐसा माना जाता है कि उनमें असीम श्रुतराशि समाहित थी। इनके नामकरण के सम्बन्ध में एकाधिक मत प्रचलित हैं। एक मान्यता के अनुसार 'पूर्व' द्वादशांगी से पहले रचे गए थे, इसलिए इनका नाम 'पूर्व' है।' दूसरी मान्यता के अनुसार भगवान् महावीर ने प्रारम्भ में पूर्वगत का अर्थ प्रतिपादित किया था और गौतम आदि गणधरों ने भी प्रारम्भ में पूर्वगत-श्रुत की रचना की तथा बाद में आचारांग आदि का प्रणयन किया। पूर्वगत दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग का ही एक विभाग है इस वक्तव्य के आधार पर चौदह पूर्व द्वादशांगी में ही समाहित हो जाते हैं। उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं था। ऐसा कहा जाता है कि महावीर ने जो कहा वह पूर्व में निबद्ध किया गया एवं उसके आधार पर गणधरों ने ग्यारह अंगों का उपदेश दिया। पूर्व का यदि 'पूर्ववर्ती ग्रन्थ' यह अर्थलिया जाए तब तो यही कहा जाएगा कि अंगपूर्वो के आधार पर निर्मित हुए हैं। आवश्यकचूर्णि में भी यह उल्लेख प्राप्त होता है कि गौतम स्वामी ने तीन निषद्या के द्वारा चौदह पूर्वो की रचना की। द्वादशांगी की रचना का उल्लेख नहीं किया है इससे भी संभव लगता है कि पहले पूर्वो का निर्माण हुआ और बाद में उनके आधार पर अंगों की रचना की गई हो। 1. आचारांगभाष्यम्, (ले. आचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1994) भूमिका पृ. 13 2. स्थानांगसूत्रं समवायांगसूत्रंच (समवायांगवृत्ति) (संपा. मुनि जम्बूविजयी, दिल्ली। 985) पृ. 72 : प्रथमं पूर्वं तस्य सर्वप्रवचनात् पूर्वं क्रियमाणत्वात् । नंदीमलयगिरिवृत्ति, पत्र 240, अन्ये तु व्याचक्षते-पूर्वं पूर्वगतसूत्रार्थमर्हन भाषते, गणधरा अपि पूर्व पूर्वगतसूत्र विरचयन्ति, पश्चादाचारादिकम। 4. नंदीचूर्णि पृ. 75 आवश्यकचूर्णि,प्र.370 : तंकहंगहितं गोयमसामिणा? तिविहं (ताहि) निसेनाहिं चोद्दसपुवाणि उप्पादिताणि। निसेज्जाणाम पणिवतिउण जा पुच्छा। 5. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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