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________________ आगम साहित्य की रूपरेखा स्थानांग में वर्णित प्रश्न- व्याकरण का स्वरूप उपलब्ध प्रश्न-व्याकरण से अत्यन्त भिन्न है। उस मूल स्वरूप का कब, कैसे ह्रास हुआ, यह अज्ञात है। इसी प्रकार ज्ञाताधर्मकथा की अनेक उपाख्यायिकाओं का सर्वथा लोप हुआ है । " श्वेताम्बर परम्परा में ग्यारह अंग आज भी उपलब्ध है। बारहवां दृष्टिवाद अंग इस परम्परा में सर्वथा लुप्त माना जाता है । भद्रबाहु से लेकर देवर्द्धिगणी तक क्रमशः पूर्वों का लोप होतेहोते वे सर्वथा लुप्त हो गए। भगवान् महावीर के निर्वाण के 980 वर्षों के बाद वलभी वाचना में दृष्टिवाद को लुप्त मान लिया गया । 31 दिगम्बर परम्परा के अनुसार आज कोई भी आगम उपलब्ध नहीं है। वीर निर्वाण से 68 3 वर्ष के पश्चात् अंग साहित्य लुप्त हो गया। दिगम्बर परम्परा का अभिमत है कि अंगगत अर्धमागधी भाषा का मूल साहित्य प्राय: सर्वथा लुप्त हो गया । दृष्टिवाद अंग के पूर्वगत ग्रन्थ का कुछ अंश ईस्वी की प्रारम्भिक शताब्दी में श्रीधरसेनाचार्य को ज्ञात था । उन्होंने देखा यदि वह शेषांश भी लिपिबद्ध नहीं किया जाएगा तो जिनवाणी का सर्वथा अभाव हो जाएगा, अतः उन्होंने श्री पुष्पदंत और श्री भूतबलि सदृश मेधावी शिष्यों को बुलाकर गिरनार की चन्द्रगुफा में उसे लिपिबद्ध करा दिया। उन दोनों ऋषिवरों ने उस लिपिबद्ध श्रुतज्ञान को ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन सर्व संघ के समक्ष उपस्थित किया था। वह पवित्र दिन 'श्रुत पंचमी' पर्व के नाम से प्रसिद्ध है और साहित्योद्धार का प्रेरक कारण बन गया है। 2 श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार ग्यारह अंग आंशिक रूप में उपलब्ध हैं । बारहवां अंग दृष्टिवाद सर्वथा लुप्त हो गया है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार ग्यारह अंग सर्वथा लुप्त हो गए, बारहवें दृष्टिवाद का कुछ अंश बचा है, दोनों परम्पराओं का आगम उपलब्धि की दृष्टि से समन्वय करके देखे तो प्राप्त होता है कि बारह ही अंगों का कुछ-न-कुछ भाग वर्तमान में भी उपलब्ध है । यह जैन परम्परा के लिए गौरव की बात है । आगमों का वर्गीकरण जैन साहित्य का प्राचीनतम भाग आगम है। समवायांग में आगम के दो रूप प्राप्त होते हैं- 1. द्वादशांग गणिपिटक ' और 2. चतुर्दश पूर्व । ' नंदी में श्रुत - ज्ञान के दो विभाग प्राप्त होते हैं- 1. अंग-प्रविष्ट और 2. अंग बाह्य । ' समवायांग और अनुयोगद्वार में अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य का विभाग नहीं है। यह विभाग सर्वप्रथम नंदी में मिलता है। नंदी की रचना से पूर्व अनेक अंगबाह्य ग्रन्थ रचे जा चुके थे और वे 1. दशवैकालिक, भूमिका पृ. 21-22 2. षट् खण्डागम: (धवला टीका) भाग । (संपा. डॉ. हीरालाल जैन, सोलापुर, 2000), पृ. 11-18 3. समवाओ, प्रकीर्णक समवाय (संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूँ, 1984) सूत्र 88, दुवालसंगे गणिपिडगे पण्णत्ते । 4. वही, 14 / 2, चउद्दस पुव्वा पण्णत्ता । 5. नंदी, सूत्र 73, अंगपविट्टं अंगबाहिरं च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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