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जैन आगम में दर्शन
आगम-विच्छेद-क्रम
भगवान् महावीर की उपस्थिति में उनके अनेक शिष्य केवलज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी एवं सम्पूर्ण द्वादशांगी के धारक थे। पूर्वो का ज्ञान द्वादशांगी के अन्तर्गत ही था। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् श्रुत की इस धारा में क्रमश: अवरोध उत्पन्न होने लगा।
श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार आगमों का विच्छेद एवं ह्रास हुआ किंतु आगम साहित्य सर्वथा विलुस नहीं हुआ है, उसका कुछ अंश वर्तमान में भी उपलब्ध है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार आगम का विच्छेद एवं ह्रास क्रम इस प्रकार है
केवली-1. सुधर्मा और 2. जम्बू
चौदह पूर्वी- 1. प्रभव 2. शय्यंभव 3. यशोभद्र 4. सम्भूतविजय 5. भद्रबाहु 6. स्थूलभद्र। ये (स्थूलभद्र) सूत्रत: चौदहपूर्वी एवं अर्थत: दशपूर्वी थे
भद्रबाहु के पश्चात् चौदह पूर्वो का अर्थत: जो ज्ञान था वह लुप्त हो गया तथा स्थूलभद्र के पश्चात् अर्थत: एवं सूत्रत: दोनों ही रूपों में चौदह पूर्वो का ज्ञान लुप्त हो गया। जैन परम्परा में महागिरि, सुहस्ति से लेकर वज्रस्वामी तक दस आचार्य दशपूर्वी हुए हैं।' इनके बाद दशपूर्वो का भी अखण्ड ज्ञान नहीं रहा।
"तोसलिपुत्र आचार्य के शिष्य श्री आर्यरक्षित नौ पूर्व तथा दसवें पूर्व के चौबीस यविक के ज्ञाता थे। आर्यरक्षित के वंशज आर्यनंदिल भी साढे नौ पूर्वी थे, ऐसा उल्लेख मिलता है। आर्यरक्षित के शिष्य दुर्बलिका पुष्यमित्र नौ पूर्वी थे।
दस पूर्वी या 9-10 पूर्वी के बाद देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण का एकपूर्वी के रूप में उल्लेख हुआ है। बीच के पूर्वो के धारक कितने और कौन थे इस बारे में इतिहास मौन है।
आर्यरक्षित, नन्दिलक्ष्मण, नागहस्ति, रेवतिनक्षत्र, सिंहसूरि-ये सारे नौ और उससे अल्प-अल्प पूर्व के ज्ञान वाले थे। स्कन्दिलाचार्य, श्री हिमवन्त क्षमाश्रमण, नागार्जुन सूरिये सभी समकालीन पूर्ववित् थे। श्री गोविन्दवाचक, संयमविष्णु, भूतदिन्न, लोहित्यसूरि, दुष्यगणि और देववाचक-ये ग्यारह अंग तथा एक पूर्व से अधिक के ज्ञाता थे।
यह भी माना जाता है कि देवगिणी के उत्तरवर्ती आचार्यों में पूर्व-ज्ञान का कुछ अंश अवश्य था। इसकी पुष्टि स्थान-स्थान पर उल्लिखित पूर्वो की पंक्तियों तथा विषय निरूपण से होती है।
वज्रस्वामी के बाद तथा शीलांकसूरि से पूर्व आचारांग के 'महापरिज्ञा' अध्ययन का ह्रास हुआ।
1. अभिधान चिन्तामणि, 1/33-34
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