________________
आगम साहित्य की रूपरेखा
29
स्मृति थी उसकी व्यवस्थित संकलना की गई। देवर्द्धिगणी ने अपनी बुद्धि से उसकी संयोजना करके उसे पुस्तकारूढ़ किया । माथुरी तथा वल्लभी वाचनाओं के कंठगत आगमों को एकत्रित कर उन्हें एकरूपता देने का प्रयास हुआ। जहां अत्यन्त मतभेद रहा वहां माथुरी को मूल मानकर वल्लभी वाचना के पाठों को पाठान्तर में स्थान दिया गया। यही कारण है कि आगम के व्याख्या ग्रन्थों में यत्र-तत्र “नागार्जुनीयास्तु पठन्ति” ऐसा उल्लेख हुआ है। विद्वानों का मानना है कि इस वाचना से सारे आगम व्यवस्थित रूप से संकलित हो गए तथा साथ ही भगवान् महावीर के पश्चात् एक हजार वर्षो में घटित मुख्य घटनाओं का समावेश भी यत्र-तत्र आगमों में किया गया। जहां-जहां समान आलापकों का बार-बार पुनरावर्तन होता था उन्हें संक्षिप्त कर एकदूसरे का पूर्ति-संकेत एक-दूसरे आगम में किया गया।'
वर्तमान में जो आगम उपलब्ध हैं वेदेवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण की वाचनाके हैं। उसकेपश्चात् उनमें संशोधन, परिवर्धन या परिवर्तन नहीं हुआ है यह विमर्शनीय है। यहां एक प्रश्न उठना . स्वाभाविक है कि यदि उपलब्ध आगम एक ही आचार्य की संकलना है तो अनेक स्थानों में विसंवाद क्यों? आचार्य महाप्रज्ञ ने विसंवाद के दो कारण माने हैं
1.जो श्रमण उस समय जीवितथेऔर जिन्हेंजो-जोआगमकण्ठस्थथे, उन्हीं के अनुसार आगम संकलित किए गए। यह जानते हुए भी कि एक ही बात को दो भिन्न आगमों में भिन्न प्रकार से कही गई है, देवर्द्धिगणी ने उनमें हस्तक्षेप करना अपना अधिकार नहीं समझा।
2. नौवीं शताब्दी में सम्पन्न हुई माथुरी तथा वल्लभी वाचना की परम्परा के अवशिष्ट श्रमणों कोजैसा और जितनास्मृति मेंथा उसे संकलित किया। वे श्रमण बीच-बीच में आलापक भूल भी गए हों-यह भी विसंवादों का मुख्य कारण हो सकता है।
ज्योतिष्करण्ड की वृत्ति में कहा गया है कि वर्तमान में उपलब्ध अनुयोगद्वार सूत्र माथुरी वाचना का है और ज्योतिष्करण्ड के कर्ता वलभी वाचना की परम्परा के आचार्य थे। यही कारण है कि अनुयोगद्वार और ज्योतिष्करण्ड के संख्या स्थानों में अन्तर प्रतीत होता है।'
इस प्रकार आगमों की सुरक्षा के लिए बौद्ध धर्म की तरह ही जैन धर्म में अनेक बार अनेक प्रकार के प्रयत्न होते रहे हैं। वर्तमान में भी आगमों के शोध/अनुसंधान के विभिन्न उपक्रम हो रहे हैं। अधिकांश विद्वानों ने चार वाचनाओं का उल्लेख किया है किंतु आचार्य महाप्रज्ञजी ने नंदी सूत्र की भूमिका में पांच वाचनाओं का उल्लेख किया है अत: हमने भी उन्हीं का अनुसरण किया है। 1. दसवेआलियं, (संपा. मुनि नथमल, लाडनूं, 1974) भूमिका पृ. 27 2.समाचारी शतक, आगम स्थापना अधिकार 38 वां (दसवेआलियं भूमिका, पृ. 28 पर उधृत) 3. गच्छाचार पत्र, 3-4 (दसवेआलियं की भूमिका पृ. 28 पर उधृत)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org