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जैन आगम में दर्शन
विद्वानों का अभिमत है कि इस वाचना के फलस्वरूप आगम लिखे भी गए ।' चतुर्थ वाचना
जब स्कन्दिलाचार्य ने मथुरा में वाचना की, उसी काल में वल्लभी में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में संघएकत्रित हुआ और आगमों को व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया। "वाचक नागार्जुन और एकत्रित संघ को जो-जो आगम और उनके अनुयोगों के उपरांत प्रकरण ग्रन्थ याद थे, वे लिख लिए गए और विस्मृत स्थलों का पूर्वापर सम्बन्ध के अनुसार ठीक करके उसके अनुसार वाचना दी गई। इस वाचना के प्रमुख नागार्जुन थे, अत: इस वाचना को 'नागार्जुनीय वाचना' भी कहते हैं। पंचम वाचना
देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में वल्लभी में वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी (980 या 993) में पुन: श्रमण संघ एकत्रित हुआ और आगम संकलन का सुव्यस्थित रूप इस वाचना के फलस्वरूप प्राप्त हुआ। मथुरा एवं वल्लभी में संपादित वाचनाओं के आधार पर यह वाचना हुई।
“वल्लभी नगर में देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में श्रमणसंघ इकट्ठा हुआ और पूर्वोक्त दोनों वाचनाओं के समय लिखे गए सिद्धान्तों के उपरान्त जो-जो ग्रन्थ-प्रकरण मौजूद थे, उन सबको लिखाकर सुरक्षित करने का निश्चय किया। इस श्रमण समवसरण में दोनों वाचनाओं के सिद्धान्तों का परस्पर समन्वय किया गया और जहां हो सका भेदभाव मिटाकर उन्हें एकरूप कर दिया । जो महत्त्वपूर्ण भेद थे, उन्हें पाठान्तर के रूप में टीका-चूर्णियों में संगृहीत किया। कितनेक प्रकीर्णक ग्रन्थ जो केवल एक ही वाचना में थे, वैसे-के-वैसे प्रमाण माने गए।
इस संदर्भ में आचार्य महाप्रज्ञ का वक्तव्य है कि "स्मृति-दौर्बल्य, परावर्तन की न्यूनता, परम्परा की व्यवच्छित्ति आदि अनेक कारणों से श्रुत का अधिकांश भाग नष्ट हो चुका था, इस वाचना में एकत्रित मुनियों को अवशिष्ट श्रुत की न्यून या अधिक, त्रुटित या अत्रुटित जो कुछ भी 1. (5) Jacobi, Hermann: Jain sutras (Delhi, 1980), XXIIP.XXXIO: Devardhi's position relative
to the sacred literature of the Jains appears therefore to us in a different light from what is generally believed to have been. He probably arranged the already existing manuscripts in a canon taking down from the mouth of learned the logicians only such works of which
manuscripts were not available. (0) Winternitz, Maurice, History of Indian literature, (Delhi 1993)P.417: Devarddhists labours
consisted merely of compiling acanonofsacredwritings partlywiththehelpofoldmanuscripts,
and partlyonthe basis oforal tradition. (ग) मालवणिया, दलसुख, आगम युग का जैन दर्शन, (जयपुर, 1990) पृ. 19 2. वीर निर्वाण (आगम युग का जैनदर्शन में उधत), पृ. 110 3. वीर निर्वाण, (आगम युग का जैन दर्शन में उधृत) पृ. ।। 2
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